हिन्दी काव्य कोश- धन

 

रे मनुज नादान....
क्यों तू धन के पीछे भागे,
मन के सच्चे सुख को त्यागे
धन नहीं जीवन में सब कुछ,
सुख संतोष है इससे आगे
फिर इस सत्य से तूने रखा....खुद को क्यों अनजान
रे मनुज नादान....
धन को जिसने जितना पाया,
उतना ही लालच है आया
छीना इसने प्रेम को मन से,
आपस में अपनों को लड़ाया
लोभ मोह से मनुज बन गया....सब अवगुण की खान
रे मनुज नादान....
माना धन भी बहुत जरूरी,
किंतु लोभ से रख तू दूरी
दान पुण्य और दया धर्म से,
भर कर्मों की गागर पूरी
दान से बढ़कर नहीं है धन की....कोई गति महान
रे मनुज नादान....
धन वैभव को जो पा जाते,
अवगुण उनके गुण बन जाते
धन ही दिलाता मान प्रतिष्ठा,
निर्धन के कोई पास ना जाते
धन के बल पर मूर्ख भी जग में....पा लेता सम्मान
रे मनुज नादान....
धन तेरा ना सदा रहेगा,कल मेरा कोई और कहेगा
तेरे सद्कर्मों का सौरभ,ही इस जग में सदा बहेगा
पाकर थोड़े धन को व्यर्थ में....क्यों करता अभिमान
रे मनुज नादान....
धन का ना कर व्यर्थ दिखावा,
ये तो है बस एक छलावा
धन माया काया सब नश्वर,
ना जाने कब आए बुलावा
रामनाम को निज उद्धार का....मूलमंत्र तू मान
रे मनुज नादान....

~ पवन सोलंकी
पाली,राजस्थान।

आज के युग में धन ही,जीवन का आधार है
धन विहिन मानव के ख़ातिर तो सूना संसार है
आज के युग में......
धन से चलता रोजी-रोटी,
धन से कई मुरादें पुरी होती
धन से होता जीवन जगमग,
धन ही है उम्मीदों की ज्योति
धन ही धर्म की रक्षा करता,
धन से धर्म की पूजा होती
धन की महत्ता सब जानते,
धन से जीवन चिंता मुक्त होती
धन को रखना बड़े जतन से,
धन की गाथा अपार है
आज के युग में........
उत्पन्न करता यह लोभ जगत में,
कई पाँप करवाता है
मानव मानव का शत्रु बनता,
सुख,शांति,प्रेम भी छिन जाता है
उच-नीच का खाई बनाता,
छल-कपट का जनक बन जाता है
दीन-हीन के जीवन का अभिशाप,
धनवान अग्रसर हो जाता है।
धन के ख़ातिर बेचता मानव मानव को,
मानवता कत्ल हो जाता है।
फिर भी लगता है सबको धन से,
सुख मिलता हजार है
आज के युग में........
धन क्रय कर लेता है,
अमूल्य संपति ईमान को
धन की लत ने नष्ट कर दिया,
अच्छे अच्छे इंसान को
लेकिन विचारों धनवानों,
फुट्टी कौङी तक ना जाती श्मशान को
फिर गुरेज है किस बात का,
क्यों खो रहे अपने पहचान को
तजो नर मोह अर्थ का,
आनन्दित होगा तेरा घर-संसार 
आज के युग  में...

 ~सत्येंद्र कुमार गुप्ता
   सूरजपुर, छत्तीसगढ

मान है सम्मान है धन,
मूर्खता है ज्ञान है धन।
सैकड़ों की भीड़ में भी,
आपकी पहचान है धन।
यूं तो है कुछ भी नही,
निर्जीव है निर्बोध है।
है किसी पथ की सुगमता,
और कहीं अवरोध है।
मारता इंसानियत को,
आज कल शैतान है धन
आपकी पहचान है धन।।
मूल है धन ही सभी का,
आजकल धन जिंदगी है।
पूजता इन्सान हर पल,
ये ख़ुदा की बंदगी है।
हर किसी की सोच का,
अब उच्चतम उन्वान है धन।
आपकी पहचान है धन।।
धन सदा सुखदाई है,
बस साथ हो शुभ दृष्टि का।
दुरुपयोगी हाथ में पड़,
नाश करता सृष्टि का।
क्योंकि ताकतवर बड़ा
यूं भले बेजान है धन।
आपकी पहचान है धन।।

~ नीरज शर्मा
सीतापुर,उत्तर प्रदेश

धन बगैर कुछ भी नहीं ,धन से है आराम ।
धन से ही तो होत है, सारे अटके काम।।
हीरा मोती धन नहीं, धन आपस का प्यार।
प्रेम गए से ना मिले ,मिले धन बार-बार।
धन के पीछे है लगा, कैसा  है यह दौर।
स्वास्थ्य से बड़ा धन नहीं, इस जग में कुछ और।
धन के गए गया नहीं, मान गए कुछ जाय।
चरित्र यदि गया जन का, सब कुछ ही लुट जाय।
इतना धन देना प्रभू  काम रुके ना कोय।
घर में सदा आनंद हो ,भूखा रहे न कोय ।
धन की महिमा बड़ी है बड़ा  ही करे काम   ।
सारा जग है नाचता, बेचारा बदनाम।।

~ आराधना शुक्ला "बबली"
     अयोध्या ,उत्तर प्रदेश।

              मैं धन हूं
निर्धन के बस मैं नाम में हूं,
 अमीर के आराम में हूं,
 नेता के हूं लालच में  मैं,
भ्रष्टाचारी की लार में हूं,
               मैं धन हूं।
जीवन की सुख-सुविधा में हूं,
जीवन की हर दुविधा में हूं ,
हूं हर उत्सव ,त्यौहार में मैं,
 लाचार की हर सेवा में हूं,
               मैं धन हूं।
दो रिश्तों के बीच करार में हूं ,
रिश्तों की बीच दीवार में हूं ,
 हूं रिश्तों की हर रार में मैं ,
और रिश्तो के भी प्यार में हूं,
            मैं धन हूं।
 माना जीवन की जरूरत हूं ,
हर वर्ग की मैं ही हकीकत हूं ,
हूं बहुत पर नहीं सब कुछ ,
 हर हृदय का भाव व्यक्तिगत हूं,
            मैं धन हूं।

~वन्दना चौधरी
    पणजी गोवा