25+ Famous Harivansh Rai Bachchan Poems In Hindi/हरिवंश राय बच्चन की ये हैं श्रेष्ठ 25+ कविताएं

 

Harivansh rai bachchan poems
25 + Famous Harivansh Rai Bachchan Poems In Hindi

आज  हम  पढ़ेंगे  हरिवंशराय  बच्चन  जी की प्रसिद्ध  25+ कवितायें / 25+ famous Harivansh Rai Bachchan Poems. इस कड़ी में हम देखेंगे अग्निपथ जैसी Best Motivational Poems in Hindi तथा मधुशाला जैसी प्रसिद्ध रचना famous Harivansh Rai Bachchan Poem जिसके लिए हरिवंश राय बच्चन जी को हिन्दी के प्रसिद्ध कालजयी रचनाकारों में गिना जाता है | Harivansh Rai Bachchan Poems में Agnipath poem, Madhushala poem, poorv chalne ke batohi आदि प्रसिद्ध हैं | 

Harivansh Rai Bachchan poetry in hindi. Harivansh Rai Bachchan poem in hindi motivation. हिन्दी की प्रसिद्ध रचनाओं में से हरिवंशराय बच्चन की प्रसिद्ध कविताओं के बारे में नीचे बात की जा रही है | Harivansh Rai Bachchan Poems in hindi litrature. हिन्दी साहित्य की अमूल निधि में आज प्रस्तुत है हरिवंशराय बच्चन जी की प्रसिद्ध कवितायें (harivansh rai bachchan poems in hindi)|

Harivansh Rai Bachchan Poem में आज हम हरिवंशराय बच्चन जी की 25+ प्रसिद्ध रचनाओं को देखेंगे जिन्हें हिन्दी की बेहतरीन कवितायें कहा जाता है | Best hindi poem of Harivansh Rai Bachchan.

Table of Contents 

Harivansh Rai Bachchan Poems
मैंने मान ली हार/Maine maan li haar
Harivansh Rai Bachchan Poems 
अग्निपथ/Agnipath poem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती 
Harivansh Rai Bachchan Poems 
मैंने गाकर दुःख अपनाये/Maine gakar dukh apnaye
Harivansh Rai Bachchan Poems 
असफलता एक चुनौती है/Asfalta ek chunauti hai
Harivansh Rai Bachchan Poems 
जो बीत गई सो बात गई/Jo beet gai so baat gai
Harivansh Rai Bachchan Poems 
आदर्श प्रेम/Adarsh prem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ/Aise mai man bahlata hun
Harivansh Rai Bachchan Poems 
नीड़ का निर्माण/Need ka nirman poem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
पथ की पहचान/Path ki pahchan poem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
साथी सब कुछ सहना होगा/Sathi sab kuch sahna
Harivansh Rai Bachchan Poems 
चल मर्दाने/Chal mardane poem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
क्या करूँ? संवेदना लेकर तुम्हारी/Sanvedna poem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
आत्म परिचय/Atma parichay poem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
था तुम्हें मैंने रुलाया/Tha tumhe maine rulaya
Harivansh Rai Bachchan Poems 
जीवन की आपाधापी में/Jivan ki aapadhapi me
Harivansh Rai Bachchan Poems 
क्षणभर को क्यूँ प्यार किया था/kyun pyar karun
Harivansh Rai Bachchan Poems 
आज तुम मेरे लिए हो/Aaj tum mere liye ho
Harivansh Rai Bachchan Poems 
दुःखी मन से कुछ भी न कहो/Kuch bhi na kho poem
Harivansh Rai Bachchan Poems 
दिन जल्दी जल्दी ढलता है/Din jaldi jaldi dhalta hai
Harivansh Rai Bachchan Poems 
ओ गगन के जगमगाते दीप/gagan ke jagmagate deep
Harivansh Rai Bachchan Poems 
अब मत मेरा निर्माण करो/Ab mat mera nirmaan kro
Harivansh Rai Bachchan Poems 
मधुशाला/Madhushala full poem

25+ Famous Harivansh Rai Bachchan Poems

Harivansh rai bachchan poem: maine maan li haar

मैंने मान ली हार

 पूर्ण कर विश्वास जिसपर,

हाथ मैं जिसका पकड़कर,

था चला, जब शत्रु बन बैठा हृदय का गीत,

मैंने मान ली तब हार!


विश्व ने बातें चतुर कर,

चित्त जब उसका लिया हर,

मैं रिझा जिसको न पाया गा सरल मधुगीत,

मैंने मान ली तब हार!


विश्व ने कंचन दिखाकर

कर लिया अधिकार उसपर,

मैं जिसे निज प्राण देकर भी न पाया जीत,

मैंने मान ली तब हार!


Harivansh rai bachchan motivational poem: agnipath

अग्निपथ

वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,

एक पत्र छाँह भी,

माँग मत, माँग मत, माँग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


यह महान दृश्य है,

चल रहा मनुष्य है,

अश्रु श्वेत रक्त से,

लथपथ लथपथ लथपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


Harivansh rai bachchan poem: koshish karne valon ki kabhi haar nhihoti

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती 

 लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है

चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है


मन का विश्वास रगों में साहस भरता है

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है


आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है

जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है


मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में


मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो


जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम

संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम


कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


Harivansh rai bachchan poem: maine gakar dukh apnaye

मैंने गाकर दुःख अपनाये

कभी न मेरे मन को भाया,

जब दुख मेरे ऊपर आया,

मेरा दुख अपने ऊपर ले कोई मुझे बचाए!

मैंने गाकर दुख अपनाए!


कभी न मेरे मन को भाया,

जब-जब मुझको गया रुलाया,

कोई मेरी अश्रु धार में अपने अश्रु मिलाए!

मैंने गाकर दुख अपनाए!


पर न दबा यह इच्छा पाता,

मृत्यु-सेज पर कोई आता,

कहता सिर पर हाथ फिराता-

’ज्ञात मुझे है, दुख जीवन में तुमने बहुत उठाये!

मैंने गाकर दुख अपनाए!

दुखी-मन से कुछ भी न कहो!

व्यर्थ उसे है ज्ञान सिखाना,

व्यर्थ उसे दर्शन समझाना,

उसके दुख से दुखी नहीं हो तो बस दूर रहो!

दुखी-मन से कुछ भी न कहो!


उसके नयनों का जल खारा,

है गंगा की निर्मल धारा,

पावन कर देगी तन-मन को क्षण भर साथ बहो!

दुखी-मन से कुछ भी न कहो!


देन बड़ी सबसे यह विधि की,

है समता इससे किस निधि की?

दुखी दुखी को कहो, भूल कर उसे न दीन कहो?

दुखी-मन से कुछ भी न कहो!


Harivansh rai bachchan poem: asfalta ek chunauti hai swikaar kro

असफलता एक चुनौती है

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो


जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम

संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम


कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती 


Harivansh rai bachchan poem: jo beet gai so baat gai

जो बीत गई सो बात गई

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था

माना वह बेहद प्यारा था

वह डूब गया तो डूब गया

अंबर के आंगन को देखो

कितने इसके तारे टूटे

कितने इसके प्यारे छूटे

जो छूट गए फिर कहाँ मिले

पर बोलो टूटे तारों पर

कब अंबर शोक मनाता है

जो बीत गई सो बात गई


जीवन में वह था एक कुसुम

थे उस पर नित्य निछावर तुम

वह सूख गया तो सूख गया

मधुबन की छाती को देखो

सूखीं कितनी इसकी कलियाँ

मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ

जो मुरझाईं फिर कहाँ खिलीं

पर बोलो सूखे फूलों पर

कब मधुबन शोर मचाता है

जो बीत गई सो बात गई


जीवन में मधु का प्याला था

तुमने तन मन दे डाला था

वह टूट गया तो टूट गया

मदिरालय का आँगन देखो

कितने प्याले हिल जाते हैं

गिर मिट्टी में मिल जाते हैं

जो गिरते हैं कब उठते हैं

पर बोलो टूटे प्यालों पर

कब मदिरालय पछताता है

जो बीत गई सो बात गई


मृदु मिट्टी के बने हुए

मधु घट फूटा ही करते हैं

लघु जीवन ले कर आए हैं

प्याले टूटा ही करते हैं

फ़िर भी मदिरालय के अन्दर

मधु के घट हैं, मधु प्याले हैं

जो मादकता के मारे हैं

वे मधु लूटा ही करते हैं

वह कच्चा पीने वाला है

जिसकी ममता घट प्यालों पर

जो सच्चे मधु से जला हुआ

कब रोता है चिल्लाता है

जो बीत गई सो बात गई 


Harivansh rai bachchan poem: aadarsh prem

आदर्श प्रेम

प्यार किसी को करना लेकिन,

कहकर उसे बताना क्या,


अपने को अर्पण करना पर,

और को अपनाना क्या ,


गुण का ग्राहक बनना लेकिन,

गाकर उसे सुनाना क्या ,


मन के कल्पित भावों से,

औरों को भ्रम में लाना क्या,


ले लेना सुगंध सुमनो कि,

तोड़ उन्हें मुरझाना क्या,


प्रेम हार पहनाना लेकिन,

प्रेम पाश फैलाना क्या,


त्याग अंक में पले प्रेम शिशु,

उनमें स्वार्थ बताना क्या,


दे कर ह्रदय ह्रदय पाने की,

आशा व्यर्थ लगाना क्या !


Harivansh rai bachchan poem: aise mai man bahlata hun

 ऐसे मैं मन बहलाता हूँ

सोचा करता बैठ अकेले,

गत जीवन के सुख दुख,

दश्नकारी सुधियों से 

मैं उड़ के छाले से लाता हूं,

ऐसे मैं मन बहलाता हूं,


नहीं खोजने जाता मरहम,

हो कर अपने प्रति अति निर्मम,

उर के घावो को,

आंसू के खारे जल से नहलाता हूं,

 ऐसे मैं मन बहलाता हूं,


आह निकल मुख से जाती है,

मानव नहीं तो छाती है,

लाज नहीं मुझको,

देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ ,

ऐसे मैं मन बहलाता हूं 


ऐसे मैं मन बहलाता हूं | 


Harivansh rai bachchan poem: need ka nirman fir fir

नीड़ का निर्माण

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर।


वह उठी आँधी कि नभ में

छा गया सहसा अँधेरा,

धूलि धूसर बादलों ने

भूमि को इस भाँति घेरा,


रात-सा दिन हो गया, फिर

रात आ‌ई और काली,

लग रहा था अब न होगा

इस निशा का फिर सवेरा,


रात के उत्पात-भय से

भीत जन-जन, भीत कण-कण

किंतु प्राची से उषा की

मोहिनी मुस्कान फिर-फिर


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर।


वह चले झोंके कि काँपे

भीम कायावान भूधर,

जड़ समेत उखड़-पुखड़कर

गिर पड़े, टूटे विटप वर,


हाय, तिनकों से विनिर्मित

घोंसलो पर क्या न बीती,

डगमगा‌ए जबकि कंकड़,

ईंट, पत्थर के महल-घर


बोल आशा के विहंगम,

किस जगह पर तू छिपा था,

जो गगन पर चढ़ उठाता

गर्व से निज तान फिर-फिर


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर।


क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों

में उषा है मुसकराती,

घोर गर्जनमय गगन के

कंठ में खग पंक्ति गाती;


एक चिड़िया चोंच में तिनका

लि‌ए जो जा रही है,

वह सहज में ही पवन

उंचास को नीचा दिखाती


नाश के दुख से कभी

दबता नहीं निर्माण का सुख

प्रलय की निस्तब्धता से

सृष्टि का नव गान फिर-फिर


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर। 


Harivansh rai bachchan poem: path ki pahchan

पथ की पहचान

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले

पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,

हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जबानी,

अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,

पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,

यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,


खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।


है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,

है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,

किस जगह यात्रा खतम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,

है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे

कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,


आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,

देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,

और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,

ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,

किंतु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,


स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।


स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,

पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,

रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,

रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,

आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,


कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,

अब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,

तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,


सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,

हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,


तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। 


Harivansh rai bachchan poem: sathi sab kuch sahna hoga

साथी सब कुछ सहना होगा

मानव पर जगती का शासन,

जगती पर संसृति का बंधन,

संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधों में रहना होगा!

साथी, सब कुछ सहना होगा!


हम क्या हैं जगती के सर में!

जगती क्या, संसृति सागर में!

एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!

साथी, सब कुछ सहना होगा!


आओ, अपनी लघुता जानें,

अपनी निर्बलता पहचानें,

जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!

साथी, सब कुछ सहना होगा! 


Harivansh rai bachchan poem: chal mardane

चल मर्दाने

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।  


एक हमारा देश, हमारा

वेश, हमारी कौम, हमारी

मंज़िल, हम किससे भयभीत ।


चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।


हम भारत की अमर जवानी,

सागर की लहरें लासानी,

गंग-जमुन के निर्मल पानी,

हिमगिरि की ऊंची पेशानी

सबके प्रेरक, रक्षक, मीत ।


चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।


जग के पथ पर जो न रुकेगा,

जो न झुकेगा, जो न मुडेगा,

उसका जीवन, उसकी जीत ।

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत । 


Harivansh rai bachchan poem: kya karun sanvedna lekar tumhari

संवेदना

क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी ?

क्या करूँ ?


एक भी उच्छ्वास मेरा

हो सका किस दिन तुम्हारा?

उस नयन से बह सकी कब

इस नयन की अश्रु-धारा?


सत्य को मूँदे रहेगी

शब्द की कब तक पिटारी?

क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी?

क्या करूँ?


कौन है जो दूसरे को

दुःख अपना दे सकेगा?

कौन है जो दूसरे से

दुःख उसका ले सकेगा?

क्यों हमारे बीच धोखे

का रहे व्यापार जारी?


क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी?

क्या करूँ?


क्यों न हम लें मान, हम हैं

चल रहे ऐसी डगर पर,

हर पथिक जिस पर अकेला,

दुःख नहीं बँटते परस्पर,

दूसरों की वेदना में

वेदना जो है दिखाता,

वेदना से मुक्ति का निज

हर्ष केवल वह छिपाता,

तुम दुःखी हो तो सुखी मैं

विश्व का अभिशाप भारी!


क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी?

क्या करूँ?

 

Harivansh rai bachchan poem: aatm parichay

आत्म परिचय

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,

फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ

कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर

मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!


मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,

मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,

जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,

मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!


मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,

मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ

है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता

मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!


मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,

सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ

जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,

मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!


मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,

उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,

जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,

मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!


कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?

नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना

फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?

मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!


मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,

मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता

जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,

मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!


मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,

शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,

हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,

मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!


मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,

मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना

क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,

मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!


मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,

मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ

जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,

मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ!


 

Harivansh rai bachchan poem: tha tumhe maine rulaya
था तुम्हें मैंने रुलाया

हाँ, तुम्हारी मृदुल इच्छा!

हाय, मेरी कटु अनिच्छा!

था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!

था तुम्हें मैंने रुलाया!


स्नेह का वह कण तरल था,

मधु न था, न सुधा-गरल था,

एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!

था तुम्हें मैंने रुलाया!


बूँद कल की आज सागर,

सोचता हूँ बैठ तट पर –

क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!

था तुम्हें मैंने रुलाया! 


Harivansh rai bachchan poem: jeevan ki aapadhapi me

जीवन की आपाधापी में

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।


जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा

मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,

हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला

हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में

कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,

आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?

फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा

मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,

क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,

जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया,

उसी को करने की मजबूरी थी,

जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,


जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।


मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,

मानस के अन्दर उतनी ही कमजोरी थी,

जितना ज्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,

उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,

जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,

उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,

क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,

यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;

अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ

क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,

वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,

जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,

यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो

जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,

जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।


जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।


मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,

है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,

कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,

प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,

मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।

पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा –

नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,

अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,

मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,

कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,

ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं

केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ

जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए


लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के

इस एक और पहलू से होकर निकल चला।


जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। 


Harivansh rai bachchan poem: kshan bhar ko kyu pyar kiya tha

क्षणभर को क्यूँ प्यार किया था

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,

पलक संपुटों में मदिरा भर,

तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?

क्षण भर को क्यों प्यार किया था ?


‘यह अधिकार कहाँ से लाया’

और न कुछ मैं कहने पाया –

मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!

क्षण भर को क्यों प्यार किया था ?


वह क्षण अमर हुआ जीवन में,

आज राग जो उठता मन में –

यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!

क्षण भर को क्यों प्यार किया था ? 


Harivansh rai bachchan poem: aaj tum mere liye ho

आज तुम मेरे लिए हो

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।


मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,

मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,

आज कुंतल छाँह मुझ पर तुम किए हो

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।


रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,

आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,

तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।


वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,

वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,

जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।


मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,

पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,

मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो। 


Harivansh rai bachchan poem: dukhi man se kuch bhi na kho

दुःखी मन से कुछ भी न कहो

व्यर्थ उसे है ज्ञान सिखाना,

व्यर्थ उसे दर्शन समझाना,

उसके दुख से दुखी नहीं हो तो बस दूर रहो !

दुखी मन से कुछ भी न कहो !


उसके नयनों का जल खारा,

है गंगा की निर्मल धारा,

पावन कर देगी तन-मन को क्षण भर साथ बहो !

दुखी मन से कुछ भी न कहो !


देन बड़ी सबसे यह विधि की,

है समता इससे किस निधि की ?

दुखी दुखी को कहो, भूल कर उसे न दीन कहो ?

दुखी मन से कुछ भी न कहो ! 


Harivansh rai bachchan poem: din jaldi jaldi dhalta hai

दिन जल्दी जल्दी ढलता है

हो जाय न पथ में रात कहीं,

मंजिल भी तो है दूर नहीं –

यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!


बच्चे प्रत्याशा में होंगे,

नीड़ों से झाँक रहे होंगे –

यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!


मुझसे मिलने को कौन विकल?

मैं होऊँ किसके हित चंचल? –

यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है! 


Harivansh rai bachchan poem: o gagan ke jagmagate deep

ओ गगन के जगमगाते दीप

दीन जीवन के दुलारे

खो गये जो स्वप्न सारे,

ला सकोगे क्या उन्हें फिर खोज हृदय समीप?

ओ गगन के जगमगाते दीप!


यदि न मेरे स्वप्न पाते,

क्यों नहीं तुम खोज लाते

वह घड़ी चिर शान्ति दे जो पहुँच प्राण समीप?

ओ गगन के जगमगाते दीप!


यदि न वह भी मिल रही है,

है कठिन पाना-सही है,

नींद को ही क्यों न लाते खींच पलक समीप?

ओ गगन के जगमगाते दीप! 


Harivansh rai bachchan poem: ab mat mera nirmaan kro

अब मत मेरा निर्माण करो

तुमने न बना मुझको पाया,

युग-युग बीते तुमने मै न घबराया,

भूलो मेरी विह्लता को,

निज लज्जा का तो ध्यान करो,

अब मत मेरा निर्माण करो,

अब मत मेरा निर्माण करो,


इस चक्की पर खाते चक्कर,

मेरा तन मन जीवन जर्जर ,

हे कुंभकार मेरी मिटटी को ,

और न अब हैरान करो,

अब मत मेरा निर्माण करो,

अब मत मेरा निर्माण करो,


कहने की सीमा होती है,

सहने की सीमा होती है,

कुछ मेरे भी वश में,

कुछ सोच-समझकर, 

मेरा भी अपमान करो,

अब मत मेरा निर्माण करो, 


Harivansh rai bachchan poem: madhushala full poem

मधुशाला

 मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,

प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,

पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,

सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१। 


प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,

एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,

जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,

आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।


प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,

अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,

मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,

एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।


भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,

कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,

कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!

पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।


मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,

भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,

उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,

अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।


मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,

'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,

अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -

'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।


चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!

'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,

हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,

किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।


मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,

हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,

ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,

और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।


मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,

अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,

बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,

रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।


सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,

सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,

बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,

चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।


जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,

वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,

डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,

मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।


मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,

अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,

पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,

इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।


हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,

अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,

बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,

पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।


लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,

फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,

दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,

पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।


जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,

जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,

ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,

जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।


बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,

देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,

'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'

ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।


धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,

मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,

पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,

कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।


लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,

हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,

हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,

व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।


बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,

रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'

'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'

मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।


बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,

बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,

लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,

रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।


बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,

हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,

राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,

जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।


सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,

सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,

धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,

जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।


भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,

छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,

पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,

जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।


बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,

पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,

दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,

विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।


हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,

वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,

स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,

पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।


एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,

एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,

दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,

दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।


नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,

कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,

जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,

जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।


बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,

बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,

बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,

बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।


सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,

मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,

मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,

कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।





हरिवंशराय बच्चन जी की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं को आप सभी तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है | वैसे तो बच्चन जी की सभी रचनायें कालजयी हैं परंतु पाठकों की रुचि के अनुरूप Harivansh rai bachchan जी की चुनी हुई रचनाओं को प्रस्तुत किया गया है | Best hindi poems of Harivansh Rai Bachchan Poem.


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