पोषित सत्य सनातन संस्कृति,होती अपने गाँव में ।
भारत बसता है मनभावन ,लोक कला की छांव में ।।
जब किसान हल के पीछे से , सुंदर तान सुनाता है ।
भारत माँ की धानी चूनर , वह नभ में लहराता है ।
तरह तरह के धन धान्यों से, माँ की गोद भराती है ।
तभी तिरंगा बड़ी शान से , दुनियाँ में फहराता है ।
अस्सी प्रतिशत जनता बसती , है भारत के गाँव में ।
भारत बसता है मनभावन,लोक कला की छांव में॥
अमर गाँव का भाईचारा, सुख-दुख साथ बिताते हैं।
यह अमराई,बाग़, बग़ीचे, सब ताल हिलोरें खाते हैं।
छत के ऊपर मोर नाचती, अपने पर फैलाती है ।
गौरैया की गुंजन की धुन,सुन सपनों में खो जाते हैं।
तरह तरह के पक्षी कलरव , करते मेरे गाँव में ।
भारत बसता है मनभावन ,लोक कला की छांव में॥
तरह तरह के खेल खेलते, बच्चे मन को भाते हैं।
लोकगीत,रामायण जी के,बोल कान में आते हैं।
कहीं कीर्तन,गम्मत होती,हरिमय गाँव दिखाता है।
कर्म करो और मस्त रहो,यह राह सभी अपनाते हैं।
मानवता भी पोषित होती, हर दम अपने गाँव में।
भारत बसता है मनभावन,लोक कला की छांव में॥
आर.बी.सिंह परिहार
गुना, म. प्र.
गलियों-गलियों चित्र उभरते
बचपन खोजे अपनी छांव,।
पेड़ों पर ही झूल रहा मन
सावन की बूंदें और नाव,।2।
त्योहारों का रूप सलोना
मेला सजता अपने गाँव;।
बांह पसारे बोल उठे मन
शहर से अच्छा अपना गाँव।।
छप्पर की शीतलता कहती
बसो यहीं तन निर्मल पाव ।
कच्चे घर के पक्के रिश्ते
नहीं मिलेंगे कहीं भी जाव,
आंगन-आंगन सुंदर सपने
सुख गोदी सा हृदय लगाव;।
बांह पसारे बोल उठे मन
शहर से अच्छा अपना गाँव।।
अन्जाने दुर्गम रास्तों पे
शहर पड़ा जब अपना पाँव,।
लगन, प्रेम, दुःख, दर्द सभी तब
सिसक रहे देख बर्ताव,
मानव कितना शून्य हो रहा
भूल समर्पण, ममता, छांव;।
बांह पसारे बोल उठे मन
शहर से अच्छा अपना गाँव।।
सांझ ढले निर्बल तन का अब
ना ही कोई ठौर ना ठाँव,।
भूल रहा हो शहर तुम्हें जब
गति से उसके चल ना पाव,।
कच्चे रस्ते, खेत पुकारे
गलियां बोले अब भी आव;।
बांह पसारे बोल उठे मन
शहर से अच्छा अपना गाँव।।
मनुज-मनुज का द्वेष मिटाते
अपनापन गांवों में पाव,।
बिटिया, स्त्री निर्भय विचरें
पूरे गाँव अंगना फैलाव,।
स्वस्थ, सुखी, निर्मल जीवन को
मेहनत करो अन्न उपजाव;।
बांह पसारे बोल उठे मन
शहर से अच्छा अपना गाँव।।
~ शैलेष पाण्डेय 'उपवन',
प्रयागराज, उ०प्र०
धरा में जो किरण पहली,पड़े वो गाँव मेरा है।
पहाड़ी हूँ पहाड़ों में,सजा सुंदर बसेरा है।।
बड़े ही नेह से रोशन,यही हिमवंत मेरा है।
जियेंगे हम मरेंगे भी,यहीं से ही सवेरा है।।
क्षितिज में दूर नैनों से,प्रभा दिखती निराली है।
सुबह की सूर्य किरणों से,मही सजती सुखाली है।।
अदायें बालमन की भी,हवा सी सरसराती है।
वहीं अठखेलियाँ उनकी,कली सी खिलखिलाती हैं।।
शिवालिक श्रेणियों से ही,सुसज्जित गाँव है मेरा।
प्रभाती से सदा गुञ्जित,सुभाषित धाम है मेरा।।
पपीहा मोर की सुंदर,मधुर आवाज कानों में।
सजीले शस्य श्यामल हैं,हमारे खेत गाँवों में।।
कहीं उत्तुंग चोटी हैं,कहीं द्रुमदल सघन जंगल।
कहीं सुर में नदी गाती,यही है गाँव में मंगल।।
झुमैले चौफले गाने,मशकबीनें सुहाती हैं।
यहीं सोपान खेतों में,नचनिया-नार आती हैं।।
यहाँ होली-दिवाली भी,खुशी से सब मनाते हैं।
दमाऊ-ढोल की थापें,सदा मंगल सुनाते हैं।।
विवाहों देवकार्यों में,सभी की देख लो थिरकन।
यही जीवन सहज अल्हड़,हमारे गाँव की धड़कन।।
यहीं टूटे-पड़े बिखरे,पटालों से बने घर वे।
सभी निष्प्राण मंदिर हैं,पड़े हैं गाँव खाली वे।।
गये जो भी पुरुष नारी,यहाँ से गाँव को तजकर।
जरा सुध लो!चले आओ,कभी तो आप निज दर पर।।
~ रोशन बलूनी
पौडीगढवाल, उत्तराखण्ड
गांव हमारे मनमोहक हैं,
ग्रामीण लोग कितने न्यारे।
खेत और खलिहान गांव के,
ताल-तलैया कितने प्यारे।।
मनमोहक हैं बाग बगीचे,
सभी रास्ते हरे भरे।
डाल-डाल पर पक्षी बैठे,
एक अनोखा रूप धरे।।
निश्छल बाल-वृद्ध गांवों के,
सुंदर और सरल बोली।
गांवों के त्योहार निराले,
दीवाली हो या होली।।
शीतलता, सरलता,मैत्री,
लोगों के सुंदर तन,मन।
सहयोग,समर्पण आपस में,
करते हैं सब कुछ अर्पण।।
प्रकृति हरा परिधान पहनकर,
सदा गांव में रहती है।
सानिध्य में मेरी आ जाओ,
सब लोगों से कहती है।।
जब नगर की आपाधापी से,
मन विचलित हो जाता है।
तब पूरे मन से गांव हमारा,
हमको फिर अपनाता है।।
जब नगर-प्रदूषण से पीड़ित हो,
गांव को वापस आते हैं।
तब गांव के पर्यावरण में आकर,
जल्द स्वस्थ हो जाते हैं।।
ताल,पोखरे, कुआं बुलाते,
तुम्हें बुलाते हैं पनघट।
पशु-पक्षी सब तुम्हें बुलाते,
तुम्हें बुलाता बरगद का वट।।
चाहे जितना बाहर घूमें,
अंतिम स्थल गांव रहे।
नहीं भूलना गांवों को,
आ जाना प्यारे बिना कहे।।
यदि नगरों से ऊब गये तो,
लौट गांव को आ जाना।
आधुनीकरण की बीमारी में,
क्यों नगरों में मर जाना ?
शिवाकान्त शुक्ल
रायबरेली, उ.प्र.
शहर की भीड़-भाड़ चकाचौंध, प्रदूषण से मन घबराने लगा
आज गांव का सौम्य, स्वच्छ वातावरण याद आने लगा
मोटर कार ,बस का सफर तो बहुत है किया
बैलगाड़ी ,ट्रैक्टर पर बैठने को मन ललचाने लगा
ऊंची इमारतों में अब दम घुटने लगा
मिट्टी का मकान मन को भाने लगा
शोरगुल से हृदय व्यथित हो गया
शालीन, शांत मंज़र की ओर मन जाने लगा
सभ्यता और संस्कृति से पटी जो दीवार
हर बशर जहां सच्चा और सरल है आचार
जहां मिट्टी की सोंधी महक है उपचार
चौपाल की बैठक प्रेम का अद्भुत संचार
जहां हर दामन रंगीन और गुलज़ार
ऐसा गांव मेरे देश का गौरव बढ़ाने लगा
आज मन उस ओर जाने लगा
नदी झरने का शोर बेहद भाने लगा
मुर्गे की बांग बच्चों का स्वांग
अनकही कहानियों से मन गुदगुदाने लगा
आज गांव बहुत याद आने लगा
है वायु भी स्वच्छ महामारी नहीं
सब तंदुरुस्त वहां कोई बीमारी नहीं
पीपल ,नीम ,बरगद की छांव तले
जिंदगी की वास्तविक खूबसूरती पले
हर रिश्ते में प्यार ,मान और संस्कार सजे
हरीतिमा से मन मुस्कुराने लगा
आज पोखर तालाब याद आने लगा
विहंग कलरव बहुत मन लुभाने लगा
सरसों के खेत धान की बाली कहे
वक्त ही वक्त है मस्त समीर बहे
हंसी ठिठोली से भरा गांव स्मृति में समाने लगा
सादगी है यहां भक्ति भी है बहुत
हर गली कूचे में बस्ता प्यार यहां
उलझनों से दूर जन्नत का जहां
बुद्ध की करुणा है गांव में
सर्वे भवन्तु सुखिन: की धारणा है गांव में
वसुधैव कुटुंबकम् यही संभावना है गांव में
यह अस्तित्व मन में समाने लगा
आज गांव बहुत याद आने लगा!!!
प्रीति कपूर
शालीमार बाग ,दिल्ली
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