जागरण के गीत गाते, खग उठे अति भोर।
बाग - उपवन में खिले हैं, फूल चारों ओर।
लालिमा सूरज बिखेरे, पात करते शोर।
वात शीतलता भरी है, जागता हर छोर।।
झाग ले झरने झरे हैं, बह रहा है नीर।
मौज में दोनों नहाते, खूब सरिता - तीर।
झूमते तरुवर हैं सारे, ओस दमके हीर।
दूर तम, भूधर दिखा है, सामने प्राचीर।।
बाग में बारात साजे, पिक रही है कूक।
गा रही बुलबुल तराने, और चातक हूक।
चूसते रस गुनगुनाते, अलि रहे हैं ढूक।
नील नभ तितली सजाती,है कहीं ना चूक।।
आँख मलते से उठे हैं, गाँव के सब लोग।
हैं कहीं व्यायाम करते, कर रहे हैं योग।
घूमते ताजी हवा में , दूर सारे रोग।
पेड़ - पौधे हैं कराते, औषधी उपयोग।।
गाय दुह, चरने चली हैं, वे विपिन की गैल।
और कर्षक खेतियों में, ले चले हल- बैल।
नार पनघट ओर जाती, घूमते हैं छैल।
धूम ऊपर उठ रहा है, गेह से खपरैल।।
सूर्य ऊपर बढ़ चला है, हो रही लघु छाँव।
आम-बरगद-नीम की है, ताकते सब ठाँव।
काज करने को बढ़े हैं, फिर सभी के पाँव।
है बहुत अनुपम -अनोखा, खूबसूरत गाँव।।
~ बसंत कोष्टी 'ऋतुराज'
वो खेतों की पगडंडियों से गुजरते रास्ते,
वो खेतों को चूमती सूरज की पहली किरण,
वो सुबह-सुबह मोती सी चमकती ओस की बूंदे,
हां, यही तो गांव है।
जहां प्रकृति अपनी अनुपम छटा बिखेरती है,
वो पक्षी दल ,व पशुओं का समूह,
वो पेड़ व फूलों- फलों से लदी डालियां ,
वो अधखिली सी कोमल कलियां,
हां यही तो गांव है।
वो खुला आसरा ना डर ना भय न चिंता,
ना कोई छोटा ना कोई बड़ा,
वो पीपल की छांव तले बुजुर्गों के किस्से,
वो जिंदगी के अनुभवों के अलग-अलग हिस्से,
वो पनघट पर जाती औरतें,
वो हंसी और ठहाकों
के बीच मस्ती में झूमती वो लड़कियां,
हां यही तो गांव है।
वो सहजता वो सरलता वो संयुक्त परिवार,
वो शर्म वो लिहाज,
वो बड़ों का सम्मान,
दिखावे से बहुत दूर,
वो सीमित सा जीने का सामान,
हां यही गांव है,
यही खुशनुमा जिंदगी की छांव है।
~ दीपा कांडपाल
माँ,पिताजी,घर पुराना गाँव में
खो रहा मेरा खजाना गाँव में ।
खा गया साँझा,पराती,कजरियां
आजकल डीजे बजाना गाँव में।
ओल्हा-पाती और चिक्का अब कहाँ,
किरकटो का है जमाना गाँव में।
याद आते गाँव के मेले हमें,
पिपिहरी पों-पों बजाना गाँव में।
स्कूलों का कर बहाना,बाग में,
याद है वो भाग जाना गाँव में।
याद है वो गर्ग जी के द्वार पर,
रात तक अड्डा जमाना गाँव में।
लोग वे अब है कहाँ जिनसे मिलें,
दिल से था मिलना मिलाना गाँव में।
मिट्टियों के गाँव,पत्थर हो गए,
पहनकर शहरों का बाना गाँव में।
भले आए शहर,रोटी के लिए,
फिर भी दिल का ताना-बाना गाँव में।।
~ डॉ मनोज कुमार सिंह
शहर की भीड़ में हम, गाॅंव, गलियारों को भूल गये।
पत्थर के जंगल में, आंगन, चौबारों को भूल गये।
मानसिकता की तरह, वस्त्र भी छोटे हो चले हैं,
संस्कारों को शोभित करते, परिधानों को भूल गये।
रोज़ बिगड़ते संबंधों को समझने की कोशिश में,
हम ख़ून के रिश्ते और परिवारों को भूल गये।
क्यों शहरी बाबू बनकर, धन का भंडार बनाया है?
क्यों हम मां-बाप और कच्चे मकानों को भूल गये?
गरीब का निवाला छीनकर, बनते हैं अमीर यहाॅं,
शहर में आकर क्या बसे, हम इंसानों को भूल गये।
धुऍं की मोटी चादर, घोटती है दम शहर का,
खुला आसमान और टिमटिमाते तारों को भूल गये।
जिस अनाज को खाने से ही आज जीवित हैं हम,
उसी अन्न को उपजाने वाले, किसानों को भूल गये।
झूठ, धोखा, अपमान, शहर की परंपरा बन गई है,
सौ की एक बात, हम अपने संस्कारों को भूल गये।
झुके फलों से वृक्ष की डाली।।
शुद्ध हवा मन भाने वाली।
चारों ओर दिखें हरियाली।।
निर्झर बहती जल की धारा।
पंछी के कलरव का नजारा।।
बसें मध्य में गांव हमारा।
सबसे सुंदर सबसे प्यारा।।
मिलजुल कर सब रहें यहाँ पर।
जुड़ जाते आपस में सब घर।।
सुख शांति दिखती है हर ओर।
ना भीड़-भाड़ ना यहाँ शोर।।
गांव में पशु धन का भंडार।
गऊॅ॑ माता का हों सत्कार।।
तीज त्यौहार रंग जमाते।
लोकगीत हम सबको भाते।।
बड़े बुजुर्ग का हों सम्मान।
अपनी संस्कृति का हों मान।।
गांव हमारा सबसे न्यारा।
बसा हैं जिसमें दिल हमारा।।
~ माता प्रसाद दुबे
बाग - उपवन में खिले हैं, फूल चारों ओर।
लालिमा सूरज बिखेरे, पात करते शोर।
वात शीतलता भरी है, जागता हर छोर।।
झाग ले झरने झरे हैं, बह रहा है नीर।
मौज में दोनों नहाते, खूब सरिता - तीर।
झूमते तरुवर हैं सारे, ओस दमके हीर।
दूर तम, भूधर दिखा है, सामने प्राचीर।।
बाग में बारात साजे, पिक रही है कूक।
गा रही बुलबुल तराने, और चातक हूक।
चूसते रस गुनगुनाते, अलि रहे हैं ढूक।
नील नभ तितली सजाती,है कहीं ना चूक।।
आँख मलते से उठे हैं, गाँव के सब लोग।
हैं कहीं व्यायाम करते, कर रहे हैं योग।
घूमते ताजी हवा में , दूर सारे रोग।
पेड़ - पौधे हैं कराते, औषधी उपयोग।।
गाय दुह, चरने चली हैं, वे विपिन की गैल।
और कर्षक खेतियों में, ले चले हल- बैल।
नार पनघट ओर जाती, घूमते हैं छैल।
धूम ऊपर उठ रहा है, गेह से खपरैल।।
सूर्य ऊपर बढ़ चला है, हो रही लघु छाँव।
आम-बरगद-नीम की है, ताकते सब ठाँव।
काज करने को बढ़े हैं, फिर सभी के पाँव।
है बहुत अनुपम -अनोखा, खूबसूरत गाँव।।
~ बसंत कोष्टी 'ऋतुराज'
सागर, मध्यप्रदेश
वो खेतों की पगडंडियों से गुजरते रास्ते,वो खेतों को चूमती सूरज की पहली किरण,
वो सुबह-सुबह मोती सी चमकती ओस की बूंदे,
हां, यही तो गांव है।
जहां प्रकृति अपनी अनुपम छटा बिखेरती है,
वो पक्षी दल ,व पशुओं का समूह,
वो पेड़ व फूलों- फलों से लदी डालियां ,
वो अधखिली सी कोमल कलियां,
हां यही तो गांव है।
वो खुला आसरा ना डर ना भय न चिंता,
ना कोई छोटा ना कोई बड़ा,
वो पीपल की छांव तले बुजुर्गों के किस्से,
वो जिंदगी के अनुभवों के अलग-अलग हिस्से,
वो पनघट पर जाती औरतें,
वो हंसी और ठहाकों
के बीच मस्ती में झूमती वो लड़कियां,
हां यही तो गांव है।
वो सहजता वो सरलता वो संयुक्त परिवार,
वो शर्म वो लिहाज,
वो बड़ों का सम्मान,
दिखावे से बहुत दूर,
वो सीमित सा जीने का सामान,
हां यही गांव है,
यही खुशनुमा जिंदगी की छांव है।
~ दीपा कांडपाल
काशीपुर (उत्तराखंड)
माँ,पिताजी,घर पुराना गाँव में खो रहा मेरा खजाना गाँव में ।
खा गया साँझा,पराती,कजरियां
आजकल डीजे बजाना गाँव में।
ओल्हा-पाती और चिक्का अब कहाँ,
किरकटो का है जमाना गाँव में।
याद आते गाँव के मेले हमें,
पिपिहरी पों-पों बजाना गाँव में।
स्कूलों का कर बहाना,बाग में,
याद है वो भाग जाना गाँव में।
याद है वो गर्ग जी के द्वार पर,
रात तक अड्डा जमाना गाँव में।
लोग वे अब है कहाँ जिनसे मिलें,
दिल से था मिलना मिलाना गाँव में।
मिट्टियों के गाँव,पत्थर हो गए,
पहनकर शहरों का बाना गाँव में।
भले आए शहर,रोटी के लिए,
फिर भी दिल का ताना-बाना गाँव में।।
~ डॉ मनोज कुमार सिंह
गोरखपुर,उत्तरप्रदेश
शहर की भीड़ में हम, गाॅंव, गलियारों को भूल गये।पत्थर के जंगल में, आंगन, चौबारों को भूल गये।
मानसिकता की तरह, वस्त्र भी छोटे हो चले हैं,
संस्कारों को शोभित करते, परिधानों को भूल गये।
रोज़ बिगड़ते संबंधों को समझने की कोशिश में,
हम ख़ून के रिश्ते और परिवारों को भूल गये।
क्यों शहरी बाबू बनकर, धन का भंडार बनाया है?
क्यों हम मां-बाप और कच्चे मकानों को भूल गये?
गरीब का निवाला छीनकर, बनते हैं अमीर यहाॅं,
शहर में आकर क्या बसे, हम इंसानों को भूल गये।
धुऍं की मोटी चादर, घोटती है दम शहर का,
खुला आसमान और टिमटिमाते तारों को भूल गये।
जिस अनाज को खाने से ही आज जीवित हैं हम,
उसी अन्न को उपजाने वाले, किसानों को भूल गये।
झूठ, धोखा, अपमान, शहर की परंपरा बन गई है,
सौ की एक बात, हम अपने संस्कारों को भूल गये।
~ संजीव सिंह
द्वारका, नई दिल्ली
छटा खेत की लगे निराली।द्वारका, नई दिल्ली
झुके फलों से वृक्ष की डाली।।
शुद्ध हवा मन भाने वाली।
चारों ओर दिखें हरियाली।।
निर्झर बहती जल की धारा।
पंछी के कलरव का नजारा।।
बसें मध्य में गांव हमारा।
सबसे सुंदर सबसे प्यारा।।
मिलजुल कर सब रहें यहाँ पर।
जुड़ जाते आपस में सब घर।।
सुख शांति दिखती है हर ओर।
ना भीड़-भाड़ ना यहाँ शोर।।
गांव में पशु धन का भंडार।
गऊॅ॑ माता का हों सत्कार।।
तीज त्यौहार रंग जमाते।
लोकगीत हम सबको भाते।।
बड़े बुजुर्ग का हों सम्मान।
अपनी संस्कृति का हों मान।।
गांव हमारा सबसे न्यारा।
बसा हैं जिसमें दिल हमारा।।
हमसे जुड़ें