हिन्दी काव्य कोश- किसान

जर्जर काया कुंठित मन
छाले पड़े है पांव में
जीवन में विश्राम नहीं
रहता किसान गांव में
भूतल की गहराई से
अन्न का खजाना लाता है
कड़ी मेहनत से नित नई
फल,सब्जी उगाता है।
झोपड़ी में जीवन बिताता
उसका बनता नहीं मकान 
सारे जगत को अन्न देता
कभी खाता नहीं पकवान।
लहलहाते खेत देखकर
खुश बहुत हो जाता है
प्यारी बिटिया के ब्याह के
सपने आंखों में सजाता है 
फसल की रखवाली करने
खेत खलियान में सोता हैं।
आपदा से फसल नष्ट हो जाती 
तब जार जार वो रोता है।
फटे वस्त्र पांव में छाले
गाड़ी बंगला दुकान नहीं
तन से बहता है पसीना
रहने को मकान नहीं।
जीवनभर अभाव में जीता
कर्ज में डूब जाता है।
असहनीय दुख होता तब
फांसी पर झूल जाता है।
नित नए कानून है बनते
आती जाती है सरकार
किसान की स्थिति न बदली
कोई नहीं सुनता पुकार।
अपने हक के खातिर अब
तुमको खुद लड़ना होगा।
हे धरती पुत्र अन्नदाता
राजतंत्र से भिड़ना होगा।   

   ~ ज्योति झरबड़े

बहुत मुझे था अभिमान 
कि मैं हूँ अन्नदाता किसान। 
पालनहार कहते सब मुझको, 
मानते सब ईश्वर समान।
मैं छोड़ता नहीं कोई कसर
करता हूँ मेहनत जी भर कर।
बहा कर अपना खून पसीना, 
उगाता फसल इस धरा पर।
मगर मेरी किस्मत में खुशी कहाँ 
करता हूँ कई विपदाओं का सामना यहाँ।
कभी सूखा कभी बाढ़ रहती है, 
फसल बर्बाद होती है यहाँ वहाँ।
झेलनी पड़ती मुझे कुदरत की मार
लेना पड़ जाता है उधार पर उधार।
गरीबी सर चढ़कर नाचती है मेरे, 
फिर भी तमाशबीन बनी रहती सरकार।
हे ईश्वर, तेरे न्याय से हैरान हूँ 
परिश्रम करने पर भी मैं परेशान हूँ। 
खुद भूखा रहकर सबका पेट भरता, 
फिर भी मैं लाचार गरीब किसान हूँ।
स्वरचित एवम मौलिक रचना

~ कला भारद्वाज
शिमला , हिमाचल प्रदेश

सिर पर पगड़ी ,कांधे गमछा
हाथ में लाठी उसकी पहचान,
वह माटी का लाल है
है धरती की शान किसान।।
सबके जीवन का रखवाला
अन्नदाता है बड़ा महान,
बेशक जन्मदाता है ईश्वर 
धरती का है वह भगवान।
वह माटी का लाल है 
है धरती की शान किसान।।
कड़ी मेहनत लहराती फसलें
 हरे भरे खेत खलिहान,
बीज के हर कण के संग
बो देता है अपनी जान।
वह माटी का लाल है
है धरती की शान किसान।
सब की भूख मिटाने वाला
उसका नहीं किसी को ध्यान,
उसके परिश्रम का मोल नहीं
मिलता नहीं उचित सम्मान।
वह माटी का लाल है 
है धरती की शान किसान।।
वह नहीं हम हैं उसके मोहताज 
जीवन उसी से है चलायमान,
थाली के हर कण-कण में
समाया हुआ है उसका एहसान।
 वह माटी का लाल है 
है धरती की शान किसान।।

~ योगिता तलोकर
रायपुर, छत्तीसगढ़

खुद रहता भूखा प्यासा,
औरों का पेट पालता है
धूप छांव की बिन परवाह के,
खेतों में हल चलाता है
मेहनत की वह रोटी खाता,
हरी चुनरी ओढ़ाकर,
वह वसुधा को दुल्हन बनाता है
वर्षा की बूंदों पर,
घर में खुशियां मनाता है।
रूठी प्रकृति को मनाता,
इन्द्रदेव का पूजन करता है
पेट काटता निज शिशुओं का,
औरों का पालन वह करता है
कर्ज में जन्मता,
कर्ज में ही मर जाता है
कभी प्रकृति की मार झेलता,
कभी बिचौलियों से ठगा जाता है।
शोषित होता सरकारी तंत्र से,
दर्द मन में दबाता है
उन्नत बीज,वाजिब दाम का,
राह देखते थक जाता है
कर्ज के बोझ में दबकर,
आत्महत्या का कदम उठाता है।
किसान का जीवन कष्टों से
भरा पड़ा है
फिर भी वसुधा का,
श्रृंगार सजाता है
खुद माटी का तिलक लगाकर,
मां धरती की आरती करता है
विपदा को सहकर,
अन्नदाता की पदवी पाता है
धन्य वसुधा मां, धन्य अन्नदाता।

~ विष्णु शंकर मीणा
 कोंटा, राजस्थान

अन्नदाता आज धरा का
 अन्न को ही तरस रहा, 
 नभ शुष्क पड़ा मगर
 नैनो से घन बरस रहा। 
 अनथक परिश्रम कर
 वह आस लगाए बैठा है, 
 लहराएंगी फसल सुनहरी
 मन में उम्मीद जगाये रहता है। 
 स्वप्न सलोने सजे आंखों में
 पर कभी भी ना ये फले, 
 कर्ज लेकर साहूकार से
 दब गए हैं बोझ तले। 
 कभी प्रतिकूलता मौसम की
 कभी कर्ज़ों का मारा है, 
 हर मौसम जीवन का
 इनको रहता नागवारा है। 
 इन फसलों के सिंचन में
 छिपी कृषक की लाचारी, 
 सबके पेट भरने वाले ने
 क्यों आत्महत्या स्वीकारी। 
 क्यों देख कर दुख इनका
 नयन किसी के छलकते नहीं, 
 क्यों इन धरती पुत्रों की
 विधाता भी सुनते नहीं। 
 जो रीढ़ देश की ,अर्थव्यवस्था की
 उन्हें व्यवस्था देश की तोड़ रही, 
  बुझ रहे दीपक इनके घरों के
 ना जाने सरकारें क्या सोच रही।

 ~ वनिता गोलछा
रायपुर, छत्तीसगढ़

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