दूर गगन वारिद का टुकड़ा,
धरती देख-देख इतराती
व्याप्त तृषा का भान नहीं है,
आशा लिए मुदित हो जाती
मेघ निकट आये ना आए ,
झंझावात उड़ा ले जाए
यदि समीप आ गया कदाचित,
बरसे या बिन बरसे छाए
आशा दृग ले भूमि बावरी,
मेघ पंथ नित दृष्टि बिछाती
धरा विशाल, तुच्छ अम्बुद क्या,
तृषा अपार बुझा पाएगा
दूर क्षितिज से अंजुलि में भर,
जल अथाह कैसे लाएगा
तृषित मेदिनी अविचल पग की,
विह्वल व्याकुल विरहिन मग की
जन्म जन्म की प्यास समेटे,
हृदय लालसा लिए सुभग की
बार अनेक बिखरती आशा,
फिर संचित करती इठलाती
तन अंतर्मन पावसमय हो,
शापित मरुथल सागर होगा
विप्रलम्भ मधुमास बने कब,
श्याम सघन घन अंबर होगा
प्रति क्षण साहस धैर्य परीक्षा,
विरह वेदना त्रास तितिक्षा
नियति कदाचित है आजीवन,
अंतहीन आजन्म प्रतीक्षा
झूठी प्रत्याशा ले अचला,
क्षण इतराती, क्षण अकुलाती
~ संजीव शुक्ला 'रिक़्त'
जबलपुर, म.प्र.
नहीं नींद आती नहीं नींद जाती,
नहीं भूल पाती नहीं याद जाती,
न मालूम होता कि लेगे परीक्षा।
प्रियतम की करती ये सांसें प्रतीक्षा।।
कभी घर के आंगन भी लगते हैं सूना ,
देते बढ़ा अब मेरे दुःख ये दूना;
कैसे भला मैं करूंगी समीक्षा।
प्रियतम की करती ये सांसें प्रतीक्षा।।
कभी बावरा मन ये पूछे हवा से,
खुशी काश होती किसी की दुआ से,
कभी गुरु जो देते मुझे आ के दीक्षा।
प्रियतम की करती ये सांसें प्रतीक्षा।।
गये छोड़ प्रियवर मैं आकुल हुई हूँ,
चिंता ने मारा कि व्याकुल हुई हूँ,
कभी करती घायल मुझे मेरी ही इच्छा।
प्रियतम की करती ये सांसें प्रतीक्षा।।
सताओ न अब यूं मुझे तुम बता दो,
तुम्हें ढूंढ़ लूं मुझको अपना पता दो,
दिशा दे गई अब तो "रागी" की शिक्षा।
प्रियतम की करती ये सांसें प्रतीक्षा।।
~ राधेश्याम "रागी"
कुशीनगर उत्तर प्रदेश
पौष मास की विकट शीत रात में
तन मन जल रहा था ज्वर ताप में
प्रतिक्षण बूढ़ी मां प्रतीक्षारत थी
वृद्धाश्रम की वो टूटी एक खाट में
नयन नीरों से ज्योति कम हो गई
बूढ़ी मां अतीत के पन्नों में खो गई
नन्हा राजकुमार उसकी जान था
समर्पित हो, समर्पण करती गई
पढ़ा लिखा खुद्दारी से जीना सिखाया
उच्चासन हो लालच बेटे का बढ़ आया
कर्तव्य तज , अब विदेश में जा बैठा
जिसे दूध से सींच कर बरगद बनाया
बीत गए न जाने कितने दिन औ बरस
प्रतीक्षा को भी अब न आता था तरस
बेटा था धनलोलुपता में ही मग्न मस्त
अब बूढ़ी मां की टूटती जाती थी सांस
हर निशा के बाद सुप्रभात तो होगी
बेटे से मुलाकात न जाने कब होगी
इंतजार कर मां चिर निंद्रा में सो गई
अब प्रतीक्षा की घड़ी कभी न होगी
~ सरोज माहेश्वरी
पुणे , महाराष्ट्र
माँ के गर्भ में ही हो जाता है,
प्रतीक्षा के अस्तित्व
का उदय...
नव अंकुरित पैरो से हम,
गर्भाशय भित्तियों में चोट कर,
प्रतीक्षारत माँ को अपनी प्रतीक्षा
का आभास कराते हैं...
प्रतीक्षा जब हो जाए पूरी,
दूसरी इच्छा पूर्ति की अभिलाषा में,
हम पुन: प्रतीक्षारत हो जाते हैं...
कभी भूख,प्यास तो कभी
माँ के स्पर्श की प्रतीक्षा,
यूँ ही कोरी प्रतीक्षा में हमारे,
बचपन बीत जाते हैं...
वयस के साथ-साथ,धीरे-धीरे,
लक्ष्य प्राप्ति हेतु कोरी प्रतीक्षा
ही होती नहीं है कारगर....
समुचित प्रयास के साथ जब
प्रतीक्षा के रंग चढ़ जाते हैं,
तब जीवन के ख़ुशनुमे पल
के दर्शन हमें हो जाते हैं....
मात्र प्रतीक्षारत रहने वाले,
हाथ पे रखकर हाथ,
भाग्य भरोसे ही रह कर,
खुद को धोखे में रखते हैं...
जीवन भर सुख के भ्रम में
खुद को रखकर,
संग अपने कइयों को,
आजीवन भ्रम में रखकर
दुख के भँवर में
ढकेल देते हैं.....
पर ,समुचित प्रयास के उपरांत,
जब की जाती है
सफलता हेतु प्रतीक्षा,
भले ही ह्रदय स्पंदन तीव्र हो जाती,
पर करती वो सुख का संचार है.....
प्रतीक्षा, प्रयास के साथ ही
सुखकर है,
वरना जीवन भर की
विपदा का बीज बोना है...
~ रंजना बरियार
राँची, झारखंड
प्रतीक्षा तो बहुत की
थी, तेरी उस रात
जहाँ हुई थी तेरे मेरे
मिलने की बात
मैं घण्टों खड़ी रही
होती रही बरसात
लोगों की नज़रें भी
लगाये हुए थी घात
तन से ज्यादा
मन था मेरा भीगा
थक गई थी मैं
काँप रहे थे जज़्बात
तू न आया वहाँ
बिगड़ते रहे हालात।
सोचती थी मैं
तुमसे मिलन की
मिलेगी सौगात
निभाएंगे रिश्ते हम
रहेंगे साथ-साथ
जिसके लिए मैं
छोड़ आई घर समाज
पर तुम निकले
निहायती दगाबाज़
तुम में अपने ही
वादों को पूरा
करने का न था दम
लौट आयी मैं पर
न कर पाऊँगी
कभी खुद को माफ़
एक अजनबी
के लिए क्यों अपनों
का छोड़ने चली
थी प्यार भरा हाथ?
क्यों की मैंने तेरी
प्रतीक्षा उस रात
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