हिन्दी काव्य कोश- अंतर्द्वन्द

अन्तर्द्वन्द प्रचंड
मानस, मेधा में छिड़ा युद्ध
जिसका कोलाहल मौन है
कहाँ राग और कहाँ द्वेष
इसकी टोह कैसे पाऊँ
आघात करते संबंधों पर 
कैसे विश्वास जताऊँ
अन्तर्द्वन्द प्रचंड
मानस, मेधा में छिड़ा युद्ध
पाषाण में खोज करूँ ईश की
या निराकार में ध्यान  लगाऊँ
न्योछावर हो जाऊँ संबंधों पर  
या स्वयं की खोज में जुट जाऊँ
अन्तर्द्वन्द प्रचंड
मानस, मेधा में छिड़ा युद्ध
धुंध व्याप्त है आगे पथ पर
प्रतीक्षा करूँ कोहरा छंटने का
 या बढ़ जाऊँ अनभिज्ञ मार्ग पर
अनुसरण करूँ संसार के नियमों का
या अपने सिद्धान्त स्वयं बनाऊँ
अन्तर्द्वन्द प्रचंड
मानस, मेधा में छिड़ा युद्ध
पीछा करूँ स्वप्निल तरंगों का
या अर्थ के पीछे जाऊँ
 द्रव्य को सर्वस्व मानूं
गूंज सुनाई देती अंतर्मन से
 संचित करूँ अमूल्य पल
बदलते देखूं  रंग अंबर के
प्रकृति के संग खिलते प्रसून निहारूं
अंतर्द्वंद प्रचंड
मानस मेधा में छिड़ा युद्ध
~ डॉ संगीता तोमर
   इन्दौर म.प्र.
अंतर्द्वन्द का प्रवाह जब होता मेरे मन में। 
बौना पाता हूं स्वयं को जीवन के रण में।। 
मुझसे सरल नदिया का बहता पानी। 
बिना अहं के रखे अपनी रवानी।। 
सुधाकर बिना मोल के शीतलता बरसाता । 
मैं बात-बात में रिश्तों की कीमत लगाता।। 
दिवाकर बिना लाभ के देता अपनी किरण। 
मैं स्वजनों के लिए कुछ करूं जैसे देता ऋण।। 
धरा निस्वार्थ भाव से सबका बनती बिछौना। 
मैं एक पग धरा के लिए खेलूँ खेल घिनौना।। 
चिड़िया घोंसला बनाती फिर भी न इतराती। 
मेरा बनाया घरौंदा परिजनों पर अहसान की पाती।। 
कोयल मन हर लेती बोलकर मीठी बोली। 
मेरी मिठास लोभ की चाशनी में लिपटी गोली।। 
नन्हा बालक सबको देता जीवन्त मुस्कान निश्छल। 
मेरे हँसी में छिपे होते कितने कपट, कितने छल।।
भाव पढ़ाते शास्त्र, सरलता-सरसता से जीना। 
मेरे अभिमानी स्वरूप ने मानव धर्म मुझसे छीना।। 
मानुष जन्म ऐसा मिला था जैसे हीरा-सोना। 
मैंने जीवन जिया लोभ, मोह, का बनके खिलौना।।  
~ सतेंद्र शर्मा ' तरंग'
देहरादून , उत्तराखण्ड।
अन्तर्द्वन्द मिटाना है तो
अन्तर्रात्मा से प्यार करो
ना भूलो भूलों को हरदम
सीख उन्ही से धार धरो
अच्छे भले-बुरे की सीख 
अन्तर्रात्मा बतलाती है
जो करो मनन-चिन्तन तो 
उलझनें सही सुलझाती है
अन्तर्द्वन्द बढ़ाता  मन में 
चिन्ता और निराशा है 
परकटे पक्षी सा जीवन
जीता जो फंस जाता है
पाश्चात्य की चकाचौंध में 
आधुनिकता के अतिरेक में
आध्यात्म शून्य हो गये 
संस्कृति विहीन हो गये 
करते हैं मनमानी अपनी
सांसारिक मोह-माया में 
गंवाते हैं मानव जन्म यूं 
अन्तर्द्वन्द रहे सदा जीवन में
चाहिए अगर सुख-शान्ति 
रिद्धि-सिद्धि जीवन में
तो हमेशा सुनिये अपनी
अन्तरात्मा की आवाज़
~ प्रीति शर्मा "पूर्णिमा"
  करनाल, हरियाणा 
ईश्वर की अनमोल कृति 
सृष्टि की आधारशिला हूँ ,
 समाज के ढांचे में फंसी,
 तलाश रही अस्तित्व स्वयं का,
 कौन हूँ मैं ,क्या नारी? नहीं ,
 मां, बहन, बेटी ,पत्नी 
 बनकर रह गयी हूँ
  रिश्तों को ढोती हूँ हरदम,
  उड़ना चाहूँ खुले गगन में, 
 पर मन में है अजब अंतर्द्वन्द
 खोल दिए जो पर उन्मुक्त,
 ढह जाएगा हर बंधन
 सपनों की अनगिनत कतारें ,                                 फैलाकर बाहें मुझे पुकारें ।
निराशा में ढूंढू आशा ,
मेरी खुशियां जब हो पूरी, 
ना दुख हो किसी को जरा सा ,       
उठ जाए ना कोई गलत कदम ,
अन्तर्द्वन्द अजब है मन में 
अंतस फंसा है उहापोह में।
जितना खोजूं आप स्वयं को, 
उतना ही मैं खोती  जाऊँ ।
नारी बन खिलना चाहूँ,
पर जंजीरें तोड़ न पाऊँ। 
अंतर्द्वंद बढ़ता ही जाए ,
क्षणिक  सुकून नहीं मुझको
अजब  ये अन्तर्द्वन्द,
हृदय में द्वंद्व ही द्वंद्व ।।
~ वंदना चौहान 
एक तरफ थे अपने ही परिजन
एक तरफ  रण था 
अंतर्द्वंद में घिरा हुआ
पार्थ का  था अंतर्मन !
नीर चक्षुओं  में सजल हुए
जड़वत हो गए शस्त्र सारे
पैरों में बेड़ियां थीं अपनों की
बेबस थे...धनुर्धर  बेचारे !
अंतर्द्वंद से जूझता मन
आखिर कैसे करें स्व पर प्रहार !
देख व्याकुल पार्थ का  मन
गिरधर ने धरा स्वरूप  विशाल !
दुविधा के कानन में उलझे ,तब
हुआ अर्जुन को सत्य का भान !
महाभारत के रण में मिला ,जब
दिव्य - स्वरूप से गीता का ज्ञान !
मेघ द्वन्द के..छंट गए सारे
किया अर्जुन ने, फिर प्रहार !
धरम के विजय की खातिर
अंततः हुआ अधर्म का संहार !!
 जिसका तांडव अदृश्य है
   ~ मीना गोपाल त्रिपाठी
       अनुपपुर, मध्यप्रदेश

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