हिन्दी काव्य कोश- आज की रचना

१.बहाना

ख्वाब अपने ही मिटाना आ गया।
हसरतों को अब दबाना आ गया।
प्यार तुम से ही हुआ था तब मुझे।
हाथ मेरे बस खजाना आ गया।
अब बहानों से न टिकता प्यार भी
राह का रोड़ा हटाना आ गया।
प्यार में तुम झूठ बोले आज तक
अब बहाना भी छुपाना आ गया।
झूठ की बातें कभी करना नहीं ।
अब बहाना भी छुड़ाना आ गया।
झूठ की बातें नहीं अब भाती मुझे
फिर बहाना से भगाना आ गया।

डॉ रेखा जैन 
फिरोजाबाद, उ0प्र0

२.सजा क्यों नारी पाती है?

वन में खड़ी निर्दोष जानकी रोये जाती है।
हे! नाथ, तुम्हारी मर्यादा,क्या यही सिखाती है?
त्याग के अपना सुख, जो
तेरे संकट में सहभागी बनी।
जीवन का भी मोह भूलकर
जो तेरा अनुरागी बनी।
राजधर्म की आड़, वही ठुकराई जाती है।
हे! नाथ, तुम्हारी मर्यादा,क्या यही सिखाती है?
देकर तुमको वचन, जिंदगी
भर जो जाती ठगी रही।
पीती रही खून के आँसू
वचन से अपने डिगी नहीं।
अग्नि परीक्षा भी उसकी,दुनिया झुठलाती है।
हे! नाथ, तुम्हारी मर्यादा,क्या यही सिखाती है?
तपती रही स्वयं आतप में
तुम पर आँच न आने दी।
छलती रही स्वयं को सदैव
अभिनय कर मुस्काने की।
चलके खुद काँटों पर,तुमको फूल बिछाती है।
हे! नाथ, तुम्हारी मर्यादा,क्या यही सिखाती है?
युगों-युगों से नारी को नर
पाँवों तले कुचलता है।
पत्नी चाहे एकव्रती, पर
पशु बन स्वयं विचरता है।
गलती करता पुरुष, सजा क्यों नारी पाती है?
हे! नाथ, तुम्हारी मर्यादा,क्या यही सिखाती है?

~ रोहिणी नन्दन मिश्र
    गोण्डा, उत्तर प्रदेश

३.पिंजरे की चिड़िया

बहुत देर से रानी बिटिया छत पर खड़ी,
पिंजरे की चिड़िया से उसकी आँखे लड़ी।
पिजरबद्ध चिड़िया नभ में उड़ने को आतुर-
बिटिया के प्रयास से चिड़िया नभ में उड़ी।।
पिंजरे की घुटन पर सोचने लगी बिटिया,
उसे भी तो मिली इक घुटन भरी कुटिया।
चिड़िया की तरह क्या वह भी उड़ पाएगी-
या घूरती आँखें डूबा देंगी उसकी लुटिया।।
खुश चिड़िया उड़ रही नभ में फैलाए पर, 
क्या बिटिया भी रह पाएगी यहाँ निडर।
डगर-डगर हर रात जहर उगलती यहाँ-
दिन में रोशनी भी डराती उसे हर पहर।।
बिटिया स्वतंत्रता पर करने लगी विचार,
बस्ती के गिद्ध चोंच मारने को हैं तैयार।
उसे अपनी छायाओं से भी लगता डर है-
पता नहीं कब उस पे हो जाए घिनौना वार।।
स्वतंत्र चिड़िया के लिए आज है सुंदर पल,
बिटिया को कब मिलेगा ये सुनहरा कल।
शायद पूरी जिंदगी कैद में बीते उसकी-
घुटन में ही बिटिया का जीवन जाएगा ढल।।

~ मनोरमा शर्मा 
हैदराबाद, तेलंगाना

४.अन्नदाता

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।
भूमि साधक का मधुर सम्मान होना चाहिए।।
इस तरह से कनक मिलता भी नहीं है सहज में।
दिन भी दुगना रात भी चहु‌ बान होना चाहिए।।
रत्नगर्भी‌ मां के प्यारे, हे कृषक! है भूमि सुत!
तुम हो पालनहार सबको भान होना चाहिए।।
शीत, वर्षा, ग्रीष्म हो, चाहे प्रकृति का जो भी रंग।
प्रीति वसुधा से तुम्हें अभिमान होना चाहिए।।
मेघ, घन, बादल, जलद, जलधर करें जब वंदना।
भूमि का श्रृंगार कर गुणगान होना चाहिए।।
बीच में अंकुर दिखे, अंकुर सहस्त्रों बीज हैं।
बीज और अचला का संगम ज्ञान होना चाहिए।।
दृढ़ परिश्रम कर जगत को अन्न देते दान हो।
प्रिय कृषक का खेत और खलिहान होना चाहिए।।
तुम हो आशीर्वाद प्रभु का सृष्टि के इस भीड़ में।
श्रेष्ठ हो तुम श्रेष्ठतम भी ना होना चाहिए।।
वसुंदरे! गौरव है 'हलधर', क्यों जगत में निम्न हैं?
ठाठ है इस विश्व का सम्मान होना चाहिए।।

~  रुपम "संवेदिता"
     सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश

५.आज का समाज 

तिनका-तिनका जोड़कर 
खडा किया संसार 
घर का मुखिया 
क्यों बेबस- लाचार ?
कहां उससे चूक हो गयी 
कहीं न मिलता प्यार 
जीवन के इस मोड़ पर 
ये कैसा व्यवहार 
ये कैसा समाज है ?
क्या है इसकी जाँत 
दो - राह पर खडा है 
आज का वृध्द समाज। 

~  गजानन पाण्डेय 
हैदराबाद, तेलंगाना 

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