हिन्दी काव्य कोश- आज की रचना

१.बूढ़ा बरगद


उतरी है साँझ,
संग लाई उदासियाँ
बस गयी हैं मन में
दूर तक वीरानियाँ।
बचपन के कोमल कलरव को,
तरुणाई के उल्लासों को
हर एक शाखा में लिखी हुयी
कितनी विगत कथाओं को
आँगन के
बूढ़े बरगद के
पत्ते छूने लगते हैं
अतीत की परछाइयाँ।
कम्प्यूटर के की-बोर्डों पर
दौड़ती हुयी उँगलियों को
टी.वी. के चैनलों से
चिपकी हुयी पुतलियों को
मुझे छूने का
मुझे देखने का
किंचित भी अवकाश नहीं
जैसे अब मेरा इन पर
कोई भी अधिकार नही।
रस्मों की अदायगी को
वर्ष में कभी-कभार
घर की बहुएँ
जब लेती हैं
पद पखार
दे देती हैं आशीष
काँपती हुयी टहनियाँ
अब शेष मेरे होने की
बस यही कुछ निशानियाँ

~डॉ.सुनीता अग्रवाल 
   कानपुर,उ.प्र.


२. खुद की तलाश

पथरीली कंकरीट राहों के
काटों को बुन बुन कर
जज्बातों को सिल सिल कर
खुशियों अरमानों को कुचल कर
जीवन जीये जा रहा हूं
खुद की तलाश किये जा रहा हूँ ।
कितनी अजीब है ये तलाश
किये जा रहा हूँ , किये जा रहा हूँ
नहीं मिल रही है ऐसे जैसे
नहीं मिलती है परछाई मुट्ठी को
नहीं मिलती कस्तूरी मृग को
नहीं मिलता वजूद -सम्मान
बेसहारा को
फिर भी जीवन जीये जा रहा हूँ
खुद की तलाश किये जा रहा हूँ ।
संघर्ष किये जा रहा हूँ
खुद से समाज से लड़े जा रहा हूँ
लड़ना नियति बन गई है
उस नियति को पिये जा रहा हूँ
नियति गरल है सुधा है
एहसास है मुझे !
उसी एहसास के दम पर
गरल को सुधा किये जा रहा हूँ
खुद के तलाश में जीये जा रहा हूँ ।

~ डॉ. रमेश प्रताप सिंह
   लखनऊ,उ.प्र.


३. उठो द्रौपदी शस्त्र उठा लो

उठो द्रौपदी शस्त्र उठा लो, अब गिरधर नही आयेंगे |
घनघोर कालिमा मय इस युग में केशव के पग भी थम जाएंगे ||
वह तो सतयुग द्वापर का युग था फिर भी नारी का मान नही था |
सीता, द्रौपदी, उर्मिला के त्याग का भी सम्मान नही था ||
हर युग में मानव-दानव भी पौरुष-वर्चस्व ही भारी है|
कभी गांधारी कभी अहिल्या, मंदोदरी बेचारी है ||
नारी तो हर युग में ही अबला थी बेचारी है|
कभी सुता तो कभी प्रिया अब माँ की भी लाज उघाड़ी है||
आज कलंकित इस समाज में, नारी बस खेल तमाशा है |
मात्र देह का आकर्षण ही, अपराधों की परिभाषा है ||
दयनीय मानवता की पीड़ा से कब तक, तेरा कोमल मन घायल होगा|
तेज़ाब, अपहरण, दुष्कर्मों के, चक्रव्यूह से आहत होगा||
क्या रक्षक, सब भक्षक है, मर्यादा तेरी शापित है |
क्या राजनीति, क्या धर्मसभा,आदर्श भी अब तो अभिशापित है||
आज उठा ले शस्त्र कि तुझको, खुद अब दुर्गा बनना होगा|
निज अस्तित्व हित तुझको ही, स्वयं कृष्ण बनना होगा ||
परिवर्तन का समय आज, हुंकार से अम्बर को थर्रा दे |
सौदामिनी बन! अपनी गर्जन से, कलुषित समाज में क्रांति ला दे||
हे अंबिका! कर शंखनाद कि तुझको, अब रण का बिगुल बजाना है|
बिन जन्मदात्री के सृष्टि कैसी, जन-जन को ये समझाना है||
काराओं का अहम् तोड़ दे, धाराओं का मोह छोड़ दे |
बन जा काली रणचंडी तू, शोषण-जड़ता की नीव तोड़ दे||
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्तेष् की, पंक्ति आज बदल डालो|
या फिर जर्जर इस समाज की, वैचारिक धारा बदल डालो||

~ डॉ. रत्ना शर्मा 
  जयपुर, राजस्थान


४. मुश्किल दिन

औरत को ढाला भगवान ने इस तरह
सृजन की क्षमता से नवाजा इसे
कोमल मन कोमल हृदय के साथ
मजबूत शरीर का मालिक बनाया
इस मजबूत शरीर में
सृजन के लिए माहवारी दे दी
जिसे समाज ने देखा घृणित दृष्टि से
इस माहवारी ने ही भ्रुण से
इस मानव शरीर को बनाया
दर्द की छटपटाहट
और छुपाने की जद्दोजहद ने
इसे और भयावह बनाया
मुश्किल से भरे ये दिन
प्रकृति का है नियम 
जीवन का आधार ही इसे बनाया
हमारे अस्तित्व का कारक है ये 
फिर क्यूँ  ना
इसे सहज ही रहने दें
सोच बदली है अभी कुछ
कुछ और बदलने की जरूरत है
दर्द को समझने की जरूरत है
ये अभिशाप नहीं
वरदान है प्रकृति का
प्रकृति द्वारा
स्त्रियों को दिया गया
नैसर्गिक उपहार है

~ आरती झा
     दिल्ली 


५. मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है

मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है,
फिर भी तुम्हें न जाने क्यूं
अपनी मोहब्बत से इंकार है।
न चाहते हुए भी स्वदेश से हुई दूर । 
जिंदगी दी थी जिन्होंने,
उन्हें ही छोड़ने को हुई मजबूर।
मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।
जिस आत्मनिर्भरता को देख हुए थे अभिभूत
नृत्य कला को छोड़ने को हो गई तैयार।
दफ़न कर दिया अपनी आकांक्षाओं को,
चल दी साथ तुम्हारे, अपने दिल को थाम।
तुम्हारे स्वप्नों में भरने लगी रंग,
खुद के परों को समेटे हुए, हुई तुम्हारे संग।
 अब बहुत निभा ली कसमें वादे,
बेटी को जन्म देकर उसकी बनूंगी आभारी।
माना चाहत तुम्हें थी बेटे की,
पर मां बनने की वर्षों से थी चाहत हमारी।
जन्म से पूर्व ही नहीं कर सकती हत्या,
तुम क्या जानो इक औरत की व्यथा।
इक दिवानगी वो थी कभी तुम्हारी,
हाथों में लिए फूल बारिश में भी आते थे।
और इक दिवानगी ये कैसी कि
कांटे चुभा हमें बेबस- बेघर किए।
आज तुम्हारे इस प्रस्ताव से मुझे इंकार है,
मेरी मोहब्बत नहीं है कमज़ोरी।
बस किस्मत से लड़ कर जीतने की,
कुछ आदत सदा रही है पुरानी।
अब मैं नहीं दोहरा पाऊंगी कि
'मुझे तुम्हारा हर प्रस्ताव स्वीकार है।'

~अर्चना सिंह 'जया'
  गाजियाबाद,उ.प्र.


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