हिन्दी काव्य कोश- आज की रचना

१.स्त्री

हो बनी प्रकृति की श्रेष्ठ कृति
या ऋतु बसंत की ..मीता हो!
हो 'अभिज्ञान 'की 'शाकुन्तल'
या जनक नंदिनी ..'सीता' हो!
अभिसार किये हो फूलों से
नित फुलबगिया में आती हो
हौले से छूकर, .सहलाकर
अनुराग तृप्त कर जाती हो।
पाकर प्रबुद्ध सा मन-आँगन
हर कष्ट सहन कर जाती हो
तप, दान, दया, ममता मूरत
प्रत्यक्ष रूप दिखलाती हो।
हो कौन भला तुम हे देवी
जो सृजनसार, वरदायक हो
माता, बेटी, बहना,.. पत्नी
हर रूप लिए सुखदायक हो
जो कोई भी हो नमन तुम्हें
तुम प्राणवायु,.. संगीता हो
स्त्री का रूप धरे .....देवी
माँ शारदे ,मानस गीता हो।

~ निरुपमा चतुर्वेदी 'रूपम'
     जयपुर, राजस्थान

२.अंतर्मन

दिया सर्वस्व तुम्हे अपना,
अर्धांगिनी तेरी मैं कहलाई।
घर छोड़ कर आई थी अपना
तेरे घर को मैं अपनाई,
पर अहम तुम्हारा नभ पर था,
नारी मन को भी छू न सका।
मैं क्यों तेरा सम्मान करूँ,
कभी अंतर्मन से पूछना।
जब ज्वर से पीड़ित थे तुम तब,
कर्तव्य समझ दिन-रात जगी।
जब मैं बीमार पड़ी तब तुम,
रोगी कह मुझसे दूर रहे,
मन तार तार हुआ मेरा।
मैं क्यों तेरा सम्मान करूँ,
कभी अंतर्मन से पूछना।
हर पल कार्यो में निरत रही,
एक बोल प्यार का सुनने को।
तब निष्क्रिय कहकर मुझको,
जीवन से मुझे निराश किया।
अपने बल पर करते करते,
थक चुकी हूँ जीवन जीने से।
मैं क्यों तेरा सम्मान करूँ,
कभी अंतर्मन से पूछना।
जब खर्चों से बेदम होकर,
तुम परेशान हमेशा रहते थे,
मैं निकल पड़ी थी घर से तब,
तेरा ही हाथ बंटाने को,
कह पतिता तुमने अपमान किया,
नजरों से गिर गए तुम तो।
मैं क्यों तेरा सम्मान करूँ,
कभी अंतर्मन से पूछना।
बच्चों की प्यारी मैं क्यों हूँ,
ये बात खटकती है तुमको।
बंदिशे लगाई लाख तुमने,
उनको  उड़ान दिया मैंने। 
बन तारा चमक सके जग में ,
वो मार्ग प्रशस्त किया मैंने।
तेरे बोल हतोत्साहित करते हैं 
मैं क्यों  तेरा सम्मान करूँ, 
कभी अंतर्मन से पूछना।
प्रेम की बात तो दूर रही,
सम्मान चाहती थी मैं तो।
जो वश के तेरे बाहर था,
तेरी बन आई थी घर में,
मरने तक तेरी ही रहना था।
यह औरत की मजबूरी थी।
मैं क्यों तेरा सम्मान करूँ,
कभी अंतर्मन से पूछना।

~ पल्लवी सिन्हा
मुज़फ़्फ़रपुर , बिहार

३.अब देशदूत बनना होगा

आतप से पीड़ित बसुधरा, तुम्हें मेघदूत बनना होगा
भारत का भाग्य जगाने को,अब देशदूत बनना होगा
तन-मन आज समर्पित कर जन-मन को आज जगाना है
हर आंगन गली खेत महके,वह सुरभित गगन बनाना है
जगती का दर्द मिटाने को,अब देवदूत बनना होगा
भारत का भाग्य जगाने को,अब देशदूत बनना होगा
बाधाएं अपरंपार चलें, संकट के मेघ उमड़ आये,
हम डरें नहीं, भयभीत न हों,बस कर्मवीर बन छा जाएं
धरती की पीर हटाने को,,अब शांतिदूत बनना होगा
भारत का भाग्य जगाने को,अब देशदूत बनना होगा
हम गौतम नानक ईशा के, आदर्शों पर पलने वाले
हम स्नेह न्याय करुणा-पथ, की,नैतिकता पर चलने वाले
जग का संताप दमित करने,अब विश्वदूत बनना होगा
भारत का भाग्य जगाने को,अब देशदूत बनना होगा

~ पद्मा मिश्रा
जमशेदपुर, झारखण्ड

४.तुम किसी कवि की कविता हो

मैं शब्दों की स्याही हूँ और तुम शब्दों की सरिता हो। 
गहराई तक रिश्ता है और तुम किसी कवि की कविता हो।
जब भी मैं कलम उठाता हूँ तुम शब्द ही बनकर आते हो।
बन जाती नई कोई कविता तुम स्वयं निखर ही जाते हो। 
हृदय का रिश्ता मन से है और मन तो मेरा चंचल है। 
प्रेम गीत ,वात्सल्य भाव की बहती सरिता अविरल है। 
कविता का अस्तित्व तुम्हीं और तुम्हीं बनी आधार यहाँ। 
तुम्हीं ओजता का पर्वत और प्रकृति का श्रृंगार यहाँ। 
रिश्तों के धागे में तुम ही मोती सा पिरोये जाते हो। 
स्वप्निल नयनों के अश्रु बन बस तुम ही रोये जाते हो। 
काव्य के इस मधुमय पथ पर तुम दीपशिखा सी ज्योति हो। 
मन के दर्पण में जब देखा बस तुम प्रतिबिंब ही होती हो।
कोरे पन्ने और कोरी कलम से तुम कुछ ऐसा लिख जाती हो। 
रिश्तों के संसार में तुम ही स्वर्णिम सी दिख जाती हो। 
यदि बना लिया है रिश्ता तो जीवन भर साथ निभा जाना।
जब जब कलम बनूँ जीवन में तुम स्याही बनकर आ जाना। 

~ राघवेंद्र सिंह
लखनऊ, उ.प्र.

५.सीमा मुक्ति

दर्पण हृदय का तोड़ के आघात करे,
जीवन में ऐसा कोई मीत नहीं चाहिए।
अश्रु धारा बहे दिन रात्रि इन नैनों से,
अधरों पर ऐसा कोई गीत नहीं चाहिए।
प्रेम से परे नहीं, मैं चिड़िया इसी बाग की,
पर बंधन सा लगे वो मलाल नहीं चाहिए।
पंखों को मेरे तार-तार करके नोच कर,
शिकारी का फैलाया ऐसा जाल नहीं चाहिए।
रात्रि और दिवस की सीमाओं में बंद हो जो,
ऐसा कुंठित आसमान नहीं चाहिए ।
तुम और मैं में भेद करें प्रीत से जो,
कुरीतियों से भरा आसमान नहीं चाहिए।
सीता और राम की या राधा कृष्ण धाम की,
चरित्र की अँकाई का विधान नहीं चाहिए।
लक्ष्य पथ कठिन कटीला चाहे कितना हो,
दया में विपत्ति का निदान नहीं चाहिए।
~ विजेता पाण्डेय
   कानपुर, उ.प्र.

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