आज की रचना

१.आज फिर से उलझने बढ़ने लगी हैं

आज फिर से उलझने बढ़ने लगी हैं,
आज मन फिर से कहीं खोने लगा है।
मन की हैं अव्यक्त सब  संवेदनाएं ....,
इन शिराओ में रुधिर जमने लगा है ।
बात कैसे क्या कहूं किसको बताऊं,
इन नयन से अश्रु अब झरने लगा है ।
मन को ये चुभने लगी खामोशियां ..,
आधुनिकता का असर होने लगा है।
ये नयन औ होंठ भी कुछ कर न पाए
संवेदनाओ का असर घटने लगा है ।
शून्यता अब बढ़ रही संवाद की जो,
मन का ये आवेग भी थमने लगा है ।
बेरुखी "तुमसे" मिली उसको नमन ,
ये कलम अवरोध बिन चलने लगा है।
लेखनी को सिर चढ़ा धड़कन बनाए
मन का ये उदगार भी बढ़ने लगा है।
बादलों से झर रही जल की ये बूंदे ,
नवसृजन का अंकुरण होने लगा है।
पेड–पौधे कर रहे अठखेलियां ये,
बारिशों में भीग  मन गाने लगा है ।
कानों में शहनाईया बजने लगी हैं,
होठों पर संगीत अब तिरने लगा है।
मन न समझे रूप'तेरा' किस लिए ,
स्व से स्व संवाद अब होने लगा है ।

~ किरण संजीव सिंह
 गोंडा, उत्तर प्रदेश 

२.नींद क्यों  आती  नही है

नींद क्यों  आती  नही है।
मुझको बतलाती नही है।
रौशनी  होगी  भला क्यों
दीप  में  बाती  नहीं   है।
तेरे  बिन   कैसे  जियेंगे।
मौत  तो आती  नही  है
जिदंगी    का  तार टूटा। 
धुन  कोई  छाती नहीं है।
अपनी किस्मत क्या कहूँ मैं,
दर्द   की   थाती  नहीं  है।
सांस  की ये आवा जाही ।
एक पल  भाती  नहीं  है।

~ स्वर्णलता
    दिल्ली

३.रात भर फिर अकेली रही चाँदनी 

रात भर फिर अकेली रही चाँदनी 
आज फिर चाँद को नींद आयी नहीं
ह्रदय में रही एक व्यथा की कथा
मौन अधरों ने फिर भी सुनायी नहीं 
कूल से एक नदी के वो चलते रहे
साथ आने को हर पल मचलते रहे
नीर ही बंध है और बाधा भी है
नीर के संग ही स्वप्न बहते रहे
संग बहती रही सब व्यथा, वेदना
सागर में जब तक समायी नहीं 
रात भर फिर अकेली रही चाँदनी 
आज फिर चाँद को नींद आयी नहीं 
दिवस साँझ सा ही रहा कुछ मिलन
एक आता रहा एक जाता रहा
पीर की लालिमा लिये यह गगन
इस विरह की तपन को बताता रहा
सूर्य घुलता रहा साँझ के जल में पर
ताप में अल्पता कोई आयी नहीं 
रात भर फिर अकेली रही चाँदनी 
आज फिर चाँद को नींद आयी नहीं 
कोरे अम्बर में सुधियों के दीपक जले 
प्रणय की आस थी पर अँधेरे तले
बाँध टूटा नयन का तो आँसू झरे
जो सुबह ओस बनकर कली पर मिले
यूँ तो तारे बहुत से प्रकाशित रहे
संवेदना पर किसी ने दिखायी नहीं 
रात भर फिर अकेली रही चाँदनी 
आज फिर चाँद को नींद आयी नहीं। 

~ अभिनव सिंह “सौरभ”
  सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश 

४.माँ की ममता

औरत से माँ बनने का
प्रकृति का ये सृजन
गुनगुनाती सी खुशियाँ देता है
जीवन की सम्पूर्णता का आगाज देख
सोच पड़ी मैं
माँ तुम हो मेरी तुम हो मेरी
कहते थकते ना थे जिनके बोल
रूनझुन सी जिनकी बोली
माँ की पुकार मचाए रखती थी
हँस हँस कर सारी बातें बताते
दुःख सुख बाँटा करते थे
बाहें फैलाए माँ खड़ी
सारी कायनात समेट लेने को
बदल गई सारी हसरतें
आँचल से निकल बच्चे
लगे ठुकराने पहली पाठशाला को
बात बात में तेवर दिखलाने लगे
दुनिया से पहचान कराने वाली माँ से
बेगानी बोली बोलने लगे
अनुरागी माँ को एकांतवासी बना
भूल उसका ही अंश हूँ मैं
वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं
खुद को नकारा बना
अपना अस्तित्व बिसर जाते हैं
तेरी माँ तेरी माँ की बोली
कानों में शीशे पिघला जाती है
आँखों में पानी, कंपकंपाती लबों से
फिर भी आशीर्वाद दे रही
अपनी सारी ममता फिर भी लुटा रही
दुःख को अपने आँचल में समेट
सुख की खुशबू बिखेर जाती है

~ आरती झा
     दिल्ली 

५.बिहार में चुनाव है

शोर मचा है, जोर मचा है
बिहार में बहार है!
बजता है विकास का भोंपू
जनता की सरकार है!
नेता आवे, मूर्ख बनावे
वायदों की बौछार है!
'दागी' नेता गर्व से बोले
हम भी चौकीदार हैं!
नाकामी  कहे छिपा कर
विपक्ष की बातें बेकार हैं!
कुर्सी में चिपक कर बोले-
होना 'विकास' अगली बार है!
कराहती है  बेबस जनता
समस्याओं का  अंबार है!
कल-कारखाने बन्द हुए 
मिला नहीं  रोजगार है!
सोच समझ मत देने को
अबकी जनता  तैयार है!
नेताओं की रंगत बदली
हाँ बिहार में चुनाव है!

~ मोहम्मद मुमताज़ हसन
       गया, बिहार

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