१. क्यों कोख मे मारा मुझको माँ
क्यों कोख मे मारा मुझको माँ
क्यों तुझको दया ना आई
क्यों जन्म देने से पहले ही तूने
मुझे मान लिया पराई
औरों की बात छोडो
पर तू तो माँ थी ना,माँ
क्यों पीडा मेरी ना समझ सकी
क्यों की यों निष्ठुरताई
क्यों मुझको मारते वक्त
तेरा कलेजा ना काँपा
क्यों धीरज तूने ना खोया
क्यों दया तुझे ना आई
इक मासुम कली को कयों
खिलने से पहलेही तोड दिया
क्यों तेरे प्यार पर हक था ना मेरा
क्या केबल हकदार है भाई
बेटी ही बहू बनती है किसी की
बेटी ही बहन और पत्नी
बेटी लक्ष्मी का रूप है माँ
तू कयों ना समझ पाई
इस दुनिया से घबराके माँ
क्यों मेरी बली चढाई
कितनी बार मरवा होगा मुझको
ये बात समझ ना पाई
कभी दहेज ,कभी समाज के रिवाज...
हर जनम में, मै यूं ही मरती आई
बन्द करो माँ बहुत हुआ
दूं मैं बार-बार दुहाई
रहम करो अब तो मुझ पर
मैं हू तेरी परछाई..
~मीना शर्मा
क्यों तुझको दया ना आई
क्यों जन्म देने से पहले ही तूने
मुझे मान लिया पराई
औरों की बात छोडो
पर तू तो माँ थी ना,माँ
क्यों पीडा मेरी ना समझ सकी
क्यों की यों निष्ठुरताई
क्यों मुझको मारते वक्त
तेरा कलेजा ना काँपा
क्यों धीरज तूने ना खोया
क्यों दया तुझे ना आई
इक मासुम कली को कयों
खिलने से पहलेही तोड दिया
क्यों तेरे प्यार पर हक था ना मेरा
क्या केबल हकदार है भाई
बेटी ही बहू बनती है किसी की
बेटी ही बहन और पत्नी
बेटी लक्ष्मी का रूप है माँ
तू कयों ना समझ पाई
इस दुनिया से घबराके माँ
क्यों मेरी बली चढाई
कितनी बार मरवा होगा मुझको
ये बात समझ ना पाई
कभी दहेज ,कभी समाज के रिवाज...
हर जनम में, मै यूं ही मरती आई
बन्द करो माँ बहुत हुआ
दूं मैं बार-बार दुहाई
रहम करो अब तो मुझ पर
मैं हू तेरी परछाई..
~मीना शर्मा
दौसा, राजस्थान
२. रात के बारह बजे
घंटी बजी रात के बारह बजे
डर लगा कि कौन ले रहा मजे
मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में"
का नायक था खडा़ शायद सजे-धजे
मैंने झुंझलाते हुए पूछा-
जो इस वक्त पधारे हो.. तुम कौन हो भाई?
मन ही मन गाली देते
देखा... द्वारा 'मैजिक आई'
बदहवास-सा चेहरा लिये कोई खड़ा था
और मुझसे..
दरवाजा खोलने का आग्रह कर रहा था
कहने लगा
मैं 'साहित्य' हूँ, मुझे बचा लो
इन दिनों हर कोई
साहित्यकार बनना चाहते हैं
इसलिये आहत हूँ
मैंने कहा,इसमें क्या बुरी बात है
बनने दो.. तुम्हारा क्या जाता है
वह बोला,नहीं-नहीं पढ़े लिखे
ज्ञानी ध्यानी को छोड़ हर कोई
साहित्यकार बनना चाहता है
यहाँ तक कि दाऊद शकील,राजन
तक मुझे धमकाने आता है
कोई भी छापामार कर
मेरा 'साहित्य' उठा ले जाता है
मैंने कहा
यही तो सबसे आसान चीज है
सबके भीतर लेखन बीज है
इसमें ना कोई कला कौशल,शिल्प
न्यूनतम अहर्ता की जरूरत होती है
ना ही किसी अभ्यास,मेहनत की
आवश्यकता ही पड़ती है
बुरा ना मानना बंधु,
तुमने अपनी कीमत खुद गिरा रखी है
साहित्यकार बनने के लिये
क्या कोई परीक्षा रखी है??
अब एक ही उपाय है
अपने मस्तक पर काले बड़े अक्षरों में लिखो
साहित्य मर चुका है
जिसको जो लिखना था
वो सब वह लिख चुका है
तेरा महत्त्व भी घट चुका है
और अब अंतिम संस्कार के लिए
घाट भी पहुंच चुका है...
~ प्रीति मेहरा
डर लगा कि कौन ले रहा मजे
मुक्तिबोध की कविता "अंधेरे में"
का नायक था खडा़ शायद सजे-धजे
मैंने झुंझलाते हुए पूछा-
जो इस वक्त पधारे हो.. तुम कौन हो भाई?
मन ही मन गाली देते
देखा... द्वारा 'मैजिक आई'
बदहवास-सा चेहरा लिये कोई खड़ा था
और मुझसे..
दरवाजा खोलने का आग्रह कर रहा था
कहने लगा
मैं 'साहित्य' हूँ, मुझे बचा लो
इन दिनों हर कोई
साहित्यकार बनना चाहते हैं
इसलिये आहत हूँ
मैंने कहा,इसमें क्या बुरी बात है
बनने दो.. तुम्हारा क्या जाता है
वह बोला,नहीं-नहीं पढ़े लिखे
ज्ञानी ध्यानी को छोड़ हर कोई
साहित्यकार बनना चाहता है
यहाँ तक कि दाऊद शकील,राजन
तक मुझे धमकाने आता है
कोई भी छापामार कर
मेरा 'साहित्य' उठा ले जाता है
मैंने कहा
यही तो सबसे आसान चीज है
सबके भीतर लेखन बीज है
इसमें ना कोई कला कौशल,शिल्प
न्यूनतम अहर्ता की जरूरत होती है
ना ही किसी अभ्यास,मेहनत की
आवश्यकता ही पड़ती है
बुरा ना मानना बंधु,
तुमने अपनी कीमत खुद गिरा रखी है
साहित्यकार बनने के लिये
क्या कोई परीक्षा रखी है??
अब एक ही उपाय है
अपने मस्तक पर काले बड़े अक्षरों में लिखो
साहित्य मर चुका है
जिसको जो लिखना था
वो सब वह लिख चुका है
तेरा महत्त्व भी घट चुका है
और अब अंतिम संस्कार के लिए
घाट भी पहुंच चुका है...
~ प्रीति मेहरा
नैनीताल, उ.ख.
३.चला है जत्था, क़ौम ज़िंदा जलाने के लिए
चला है जत्था, कौम ज़िंदा जलाने के लिए
रूहें फड़फड़ा रही है, मजबूरन मनाने के लिए
कुछ गौरैए भी, अपनी चोचों से बूंद गिराए
निकल पड़े कुछ लोग जब, आग बुझाने के लिए
तारीखें पढ़ी जाएगी, यकीनन दशकों बाद जब
मुहब्बत में निकलेंगे, अच्छा रिश्ता निभाने के लिए
बुरे कर्मों से पैशाचो का, बुरा हश्र है आजकल
रूहें भी हालते दफ़्न में, सिसक रही आने के लिए
हुक्मरां कह रहे, आज की नहीं ये बीती तारीख है
और काग़ज़ भी लिए, फिर रहे है समझाने के लिए
लाशें जली मिली है, जिन-जिन के आलयों में
पूरी जतन लग गई है, कफ़न में सुलाने के लिए
खोदी गई भी जब, सही लंबाई की कब्र को
इक टुकड़ा भी न मिला उसका, दफनाने के लिए
चिता भी सज गई है, चन्दन की लकड़ियों का
भीड़ जुटी है, केवल व केवल सुलगाने के लिए
बदन का हिस्सा न मिला, लेटी चिता है पास में
लगी है आग जो वहां, केवल दिखलाने के लिए
यलगार जोश में दिख रही, आजकल के हुक्मरान
मुहल्ले में पहुंच गए, अपनी अकीदत बताने के लिए
हिन्दू हो या मुसलमां, कितने रौब में नज़र आ रहे
जैसे पैदा ही हुए है, एक दूसरे को सताने के लिए
फ़रिश्ते भी रों पड़े हैं, आपसी इस मंज़र को देखकर
इधर शैतान भी निकल पड़ा है, मुर्दे हंसाने के लिए
सैलाब उमड़ पड़ा है, सारे गुनाहों की जहान से
इबादत भी नही बची रही, अब पुकारने के लिए
रूहें भी फ़िक्र में, हिल-डुल रहीं है इधर उधर,
बची है जो अभी यहां, आदमियत तड़पाने के लिए
आदमियत सभी भूलकर, इंसान है लगा फरेब में
मिसाल भी बन रहा है, अब हर ज़माने के लिए
बेमौत मर गई, जो अनगिनत सी मेरी राखियां
एक भाई भी न बचा है, अब धागा बंधवाने के लिए
मां भी बेबसी में अश्क बहा रही, अंधी सी आंख से
हाय इक तिफ्ल भी न बचा है, बोझ उठाने के लिए
घर की खुराक़ चल बसा है, फ़ितनों की आग से
कौन आयेगा अब, भूखी नन्ही को दूध पिलाने के लिए
रुसवाइयों के इस दौर में, क्यो जन्म लिए इमरान
जन्नत की राह से ही, असल में भटक जाने के लिए
~इमरान सम्भलशाही
जौनपुर, उत्तर प्रदेश
४.आनुपम उपहार बेटियाँ
ईश्वर का अनुपम उपहार, होती है बेटियाँ।
सृष्टि का ममतामयी, दुलार होती हैं बेटियाँ।
शुचिता मृदुलता से गढ़ा है, प्रभो ने इनको तो
अद्भुत प्यार का पारावार, होती है बेटियाँ।
आसमान से उतरी है यह परियों का रूप ले
उस परमात्मा का अवतार, होती है बेटियाँ।
ओस की बूँद जैसी निर्मल,ये पावन करतीं जग
सुंदर मन बगिया का दुलार, होती है बेटियाँ।
कभी मोम से भी कोमल तो कभी चट्टान बनीं
दोनों रूपों में ही निसार, होती हैं बेटियाँ।
भूल से भी मत समझना इन्हें तुम कमजोर अबला
बैरियों पर विनाशक प्रहार, होती है बेटियाँ।
कभी दुर्गा बनी कभी चंडी बनी वीरांगना
हर क्षेत्र में जीत का हार, होती है बेटियाँ।
दोनों कुलों की रखती लाज, देकर प्राण यह तो
माता के भाल का शृंगार, होती है बेटियाँ।
जब भी थक हार कर टूटती, बिखरती है जिंदगी
तब तसल्ली की शीतल बयार, होती हैं बेटियाँ।
मरुभूमि की शुष्कता हरतीं, जीवन रस देतीं
मंदम मंदम सुखद फुहार, होती हैं बेटियाँ।।
~ डॉ. हेमलता सुमन
आगरा, उत्तर प्रदेश
५.महिषासुर का संहार करो
हर लोग आज एकत्रित हो,
महिषासुर का संहार करे |
यशमान प्रतिष्ठा खोकर हम,
अब और नहीं जी पायेंगे!
दुख-दर्द मिला आखिर कैसे?
किसी रोज कभी बतायेगे!
ये दुष्ट भला क्या बदलेगा,
यूं व्यर्थ न जय-जयकार करें |
आँखों में नींद नहीं आती,
हर वक्त हादसा दिखता है !
धमनी में और शिराओं में,
हर वक्त खौफ सा रहता है!
सब ठीक ठाक हो जाये फिर,
कुछ ऐसा अब उपचार करें |
हम उसे बताने वाले है,
हर वक्त नही इतराओ तुम!
नागिन की तरह मचलते क्यों,
यूँ और नहीं बलखाओ तुम!
है फन कागज़ फिर बैठे तो,
आओ मिलकर उद्धार करे |
जब सोच हमारी बदलेगी,
तो राह निकल ही आयेगी!
मंजिल होगा आसान बहुत,
दुविधा सारी टल जायेगी!
नित सूरज नया उगाना तो,
मिलजुल कर सभी विचार करे!
माँ दुर्गा की भी चाह यही,
मानव, मानव से प्यार करे!
सब ठीक करेगी देवी माँ,
कुछ साहस तो इक बार करे!
इन मौत बाटने वालों का,
कुछ हम भी तो सत्कार करे!
हर लोग आज एकत्रित हो,
महिषासुर का संहार करे |
मौलिक रचना
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