हिन्दी काव्य कोश- आज की रचना


१.अनकहा दुःख

कैसे उसकी मां सोई होगी ,
जिसने अपनी बेटी खोई होगी।
कैसा सांसों का गुंजन होगा ,
जिसके रोम रोम में क्रंदन होगा ।
कैसे दिल को समझाएगी ,    
कैसे उसकी स्मृति भूलाएगी।
जिसकी धड़कन से दिल धड़का करता था ,
कैसे उसकी खामोशी अपनाएगी।
प्रतिक्षण जिसका रास्ता देखा करती थी ,
वो बेटी तो अब ना आएगी ।
जिसके लिए दुआएं करती होगी ,
कैसे उसकी चींखें सुन पाएगी ।
हाय विधाता ! स्त्री होना पाप हुआ है,
कैसे तेरी सृष्टि चल पाएगी।
पशुता कहना पशुता की निन्दा होगी ,
खामोशी पूछ रही है क्या मानवता जिंदा होगी।

~ अर्चना मिश्रा
 बरेली, उत्तर प्रदेश

२.आराधन

अखंड दीपक से आराधन,
ढोल नगाड़ों का हो वादन।
लाल चुनरिया,साज सिंगार
हर दिन हो माँ का यश गायन।
मातु भवानी का ध्यान धरें,
हरपल उनका गुणगान करें।
अष्टभुजाओं वाली अम्बे,
दीन-दुखी का भंडार भरें।
अटल आस्था से आगे बढ़ें
विकास के अगम्य शिखर चढ़े।
इस भवसागर से तर जाऊँ,
नव नूतन हम प्रतिमान गढ़ें।
अंधाकर में उजियार भरें,
पीड़ा हरने का ध्यान करें,
टूटे रिश्तों को जोड़ सकूँ,
मानव में परहित चाह जगे,
संवेदना के दीपक जलें,
आस्था का उसमें तेल भरें।
कलिकाल धरा पे माता का,
विधिपूर्वक हम आह्वान करें।

~ डॉ. प्रीति प्रवीण खरे
      भोपाल, म.प्र.

 ३.छोड़ भी दो

अन्तर मन की कलमश त्यागो,
हुआ बाहरी भाव अब बहुतेरा।
हस्ती दांतों की फितरत छोड़ो,
हो गया धोखा है  अब घनेरा।
बाहर से योगी अंदर से भोगी,
बनना अब भाई छोड़ भी दो।
छल - प्रपंच के नए-नए बंधन,
अब तो प्यारे तुम तोड़ भी दो।
सहज सरल  सरिता  सी बहकर,
 सागर से  नाता  जोड़   भी लो।
क्या मालूम कब  घड़ी  आ  जाए,
बहरूपियों का वेश तुम छोड़ भी दो।
बाहर से उजले अंदर से काले - काले,
क्यों जग को अंधकार में डाल रहे हो?
समझ ही न आता इस विश्व भूमि पर,
तुम किसकी विरासत संभाल रहे हो?
यह धरा रही है सदा पुनीत - पावन की,
क्यों वैमनस्य का जहर तुम घोल रहे हो?
मन में मटमैले मलीन गंदले भाव संजोए,
क्यों मुख से मीठा - मीठा तुम बोल रहे हो?
कभी ज्योतिष के तो कभी धर्म के नाम पर,
जनमानस से क्यों घिनौनी ठगी करते हो?
औरों को डराते हैं भगवान के नाम पर नित,
खुद क्यों न तुम फिर भगवान से डरते हो?
खजाना अपना भरने की चाहत में सब,
गिरगिट के से  बदलते हैं लोग क्यों रंग?
छल ही छल रह गया शेष अब यहां क्या?
रहा कहां अब मर्यादित  धर्म  का  ढंग? 

~ हेमराज ठाकुर
     मंडी, हि.प्र.

४. प्रार्थना

अर्जन सर्जन भाव से, मेघ करें उद्घोष।
जगजननी भयहारिणी, शुभ मंगल जयघोष ।
आदिशक्ति वरदायिनी, महिमा अपरम्पार ।
भक्ति भाव अर्पण करें, नमन करो स्वीकार।
आदि शक्ति जगवंदिता, प्रथम आविभूर्त ।
शैलपुत्री आराधिता,  नवोन्मेष नवरूप।
ब्रह्मचारिणी उद्धवा,हरती जग के क्लेश ।
आदिशक्ति वरदायिनी , नाशे विघ्न विशेष।।
महिसासुर संहारणी ,विध्वंसक  श्रृंगार।
चंद्रघंट वरदा शुभा, दिवस तीन अवतार ।।
शशिघंटा भयहारिणी, सिंहवाहिनी रूप।
वरद हस्त रखना सदा, हर्षित हिय अनुरूप।।
आदिशक्ति यशदायिनी, रवि मुख सम अलोक।
देवी कुष्मांडा प्रिया,चतुर्दिवस संयोग।।
कमल हस्त सिंहासना, त्रिपुर सुंदरी गात।
स्कंदमाता सर्वप्रिया,  पंचम पुण्य प्रभात।।
ताम्रम्भोज निवासिनी, आरूढा शार्दुल।
देवी कात्यायनी नमन ,कर शोभित त्रिशूल।।

~ सारिका "जागृति"
ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

५. करैलै से भी कड़वी जिन्दगी 

जब मैं छोटी बच्ची थी
करैला खाने से डरती थी
उसका कड़वा स्वाद 
मुझे नही भाता था
मुंह में लेते ही उगल देती थी।
मांँ बहुत समझाती थी
इसे खाने से मत डरो बेटी
इस जीवन की सच्चाई 
इससे भी अधिक होती है कड़वी
इसका स्वाद जितना कड़वा है
उतना ही यह स्वास्थ्यवर्द्धक होता है।
फिर भी मैनै मांँ की बात नही मानी
कहा..मांँ मुझे करैला नही है खानी।
अब मैं भी बड़ी होने लगी
मेरी जिम्मेदारियां बढ़ने लगी
जीवन के राहों में भाँति, 
भाँति के लोग मिले,,,,,,,,
उनके मीठे,कड़वे बोल सूने
मीठा तो अच्छा लगता था
मगर कड़वा नही पचता था
लेकिन कड़वा भी पचाना पड़ा
स्वाद ले-लेकर खाना पड़ा
उनके कड़वे शब्दों के सामने 
करैला तो सचमुच कुछ भी नहीं
यह सोच मैं करैला खाने लगी 
हाॅ॑,अब मैं करैला खाने लगी
मांँ न सही,,,,,,,,
जिन्दगी मूझे करैला खाना 
सिखाने लगी!

~ सुभद्रा मिश्रा
   मधुबनी, बिहार

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