वह शांत किसी उधेड़ बुन में।
चला जा रहा किसी धुन में।।
पद रक्त रंजित, मन अडिग है।
निश्चित ही कोई प्रेम पथिक है।।
मन में पाने की चाह लिये।
अंतस में कोटि आह लिये।।
मंजिल का ही ध्यान सदा।
कंटकों का उसे ज्ञान कहाँ?
दूर कोई प्रेयसी यह आस लिये।
प्रिय के अधरों की प्यास लिये।।
नयन होंगे उसके भी नीर भरे।
प्रियतम वियोग की पीर भरे।।
जग, जग जाए इससे पहले।
रक्त रिस जाए इससे पहले।।
प्राण पखेरू उड़ न जाए कहीं।
रवि नभ में चढ़ न जाए कहीं।।
चला जा रहा प्रेम पथिक उस ओर।
जहाँ राह देखती उसकी चित चोर।
हर कृष्ण को रुक्मिणी मिल जा।
हा! राधा न अब कोई बन पाए।।
भोर हो तो हो पर दोनों के लिए।
दोनों ही खुश होकर साथ जियें।।
विरहाग्नि में जो तिल तिल जले।
शीतल संगम में भी तो स्नान करें।।
अहो! पथिक बढ़ो सदा मंगल हो।
विचारों का न अब कोई दंगल हो।।
प्रेम दिव्य सत्य, तो चिंता क्यों?
मिलन निश्चित है, तो शंका क्यों?
- प्रभाकर श्रीवास्तव
- झाँसी (उत्तर प्रदेश)
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कभी मधुमास के मधुर गान सा।
कभी सुक-पिक की पंचम तान सा।।
स्निग्ध ज्योत्स्ना के शीतल उपमान सा।
संग जो चलता मेरे अभिमान सा।।
वह प्रेम पथिक है ।
सूनेपन को भर दे स्पंदन जो।
मृदुल अपनेपन का अवगुंठन जो।
मेरे स्वप्नों का श्रृंगार सदन जो।
वह प्रेम पथिक है ।
अश्रु के मधुकण लुटाता जो ।
मधुर मिलन के स्वप्न सजाता जो।
मृदु पलकों से नींद चुराता जो।
वह प्रेम पथिक है।
दीपक संग बाती ज्यों ।
सीपी संग मोती ज्यों।
पुष्प संग सुरभि ज्यों।
अनुभूति में निशिदिन साथ है चलता।
वह प्रेम पथिक है।
संगीत बन जो मेरे जीवन में घुलता।
शशि के आभास सा जो मन तरंगों में झूलता।
मन के आंगन में तरुवर सा फलता फूलता।
मुझ में सिमटकर बस मुझ में रहने वाला।
वह प्रेम पथिक है।
~डॉ आकांक्षा
जिला-झुंझुनूं, राजस्थान
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आँखों से गिरते आँसू को,
अपने आँचल में झरने दो ।-1
मत पोंछो भीगी पलकों को,
आज मुझे रो लेने दो ।।-2
कहाँ छुपे थे 'चाँद' अभी तक,
कहाँ रहे हे प्रेम-पवन ।-3
कहाँ रही 'सौंदर्य दामिनी',
आज उसे फिर गिरने दो ।।-4
कहाँ रहे घनश्याम अभी तक,
हम विरह-धूप में दह से गए।-5
प्रिय केशों की छाँव में अपने,
स्वाति-सुधा को पीने दो ।।-6
गतिशील पवन-जलधर के संग,
मनहर स्पर्श का झोका ।-7
इतना अपार सुख संचय को
अब तक था किसने रोका ।।-8
संसार परिधि है जीवन की
तुम केन्द्र बिन्दु सुन्दरता ।-9
मैं चक्कर खाता 'प्रेम-पथिक'
तुम मुक्ति की मधुर अमरता।।-10
जीवन एकांत शांत कानन में,
पुकार रहा था कब से ।-11
वनदेवी सी प्रकट हुई तुम!
लेकर कितनी सुन्दरता !!-12
स्नेह-सुरभि से जागृत हो गई-
मेरी कुण्डल कस्तूरी ।-13
जन्म-जन्मों की अतृप्ति-
आज तृप्ति हुई है मेरी ।।-14
मैं युगों जड़-पर्वत बना रहा,
तुम बिन्दु, नदी फिर वाष्प हुई।15
'आज स्थिर परम-आस्था हुई'
जो तुम मुझपे आकर बरस गई ।।-16
~ बृजेश आनन्द राय
'जौनपुर', उ.प्र.
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"प्रेम पथिक हूँ! नहीं रुकूँगा,
चाहे वैरी हो जग सारा।
माना शूल चुभेंगे अगणित,
सच्चा प्रेमी कब है हारा?
इस पथ में सब साथ छोड़ दें,
लेकिन तेरा साथ चाहिए।
मेरे प्रियतम हिम्मत रखना,
हाथों में तेरा हाथ चाहिए।
रिश्ते की मिठास हो ऐसी-
अश्रु जल भी लगे न खारा।
प्रेम पथिक हूँ ! नहीं रुकूँगा,
चाहे हो वैरी जग सारा।।
मैंने जो भी स्वप्न संजोये,
तुझको देखा परछाई-सा।
तू है तो दुःख का पहाड़ भी,
मुझको लगता है राई-सा।
तेरी इक मुस्कान तमाचा-
अवरोधों पर लगे करारा।
प्रेम पथिक हूँ! नहीं रुकूँगा,
चाहे हो वैरी जग सारा।।
मेरा प्रेम अटल, अनंत है,
निश्छल, निःस्वार्थ भाव है।
तन केवल पहचान मात्र है,
मन से मन का ही लगाव है।
शाश्वत रहे प्रेम यह अपना-
माँगू जब टूटे कोई तारा।
प्रेम पथिक हूँ! नहीं रुकूँगा,
चाहे हो वैरी जग सारा।।"
~ डॉ. केदार गुप्ता,
उज्जैन, म.प्र.
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हे प्रेम पथिक!तुम यायावर सम,
विह्वल होकर क्यूँ भटकते हो ?
शिथिल देह औ सजल नयन ,
क्यूँ आकुल-व्याकुल दिखते हो ?
प्रेम तो कोमल फुलवारी सम अरु
चंदन सम शीतल होता है।
हे प्रेम पथिक! फिर हृदय तुम्हारा,
क्यूँ प्रेम में प्रति क्षण रोता है?
क्या बिसराया है तुम्हें किसी ने,
या किसी रमणी ने है ठुकराया?
वियुक्त हुए या अपनी प्रिया से,
जिससे विरह-वेदना को पाया।
गंगा-जमुना सी अश्रु-धार ने,
बिन कहे ही सब कुछ बतलाया।
है वियोग कारण इस दुःख का,
उसके रोम-रोम ने दिखलाया।
हे प्रेम-पथिक! सुन सदा प्रेम में,
कुछ-कुछ ऐसा ही होता है।
कभी मिलन तो कभी बिछड़ना,
कोई पाता कोई खोता है।
पर है जीत सदैव उसी की जो,
आशा और साहस से जीता ,
तोड़ के बंधन सब अवरोधों के,
वह ही प्रेम रस सुधा पीता है ।
चिरशापित चकवा-चकवी भी,
तारे गिन-गिन रात्रि बिताते ।
पर प्रातः मिलन की आशा से,
वे दुःख में भी सुख पाते हैं।
आशा की किरण छिपी होती है,
हर दुःख की काली छाया में।
हे प्रेम पथिक! पुलकित हो तू भी,
अब पुनर्मिलन की आशा में।
~ रश्मि तिवारी
गौतमबुद्ध नगर, उत्तर-प्रदेश
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