हिन्दी काव्य कोश~ मॉं


जिसका सृजन शिल्प मुझमें है   
उस पर क्या संगीत लिखूँ ?
मैं खुद माँ की रचना हूँ फिर,
 माँ पर कैसे गीत लिखूँ?
दु:ख-पीड़ाएँ सहकर मुझको,
 सुख की इक परिभाषा दी ।
जीवन पथ दिखलाया माँ ने,
नव जीवन की आशा दी ।
माँ से ही है जग उजियारा ,
माँ को सच्चा मीत लिखूँ?
मैं खुद माँ की रचना हूँ फिर,
 माँ पर कैसे गीत लिखूँ?
माँ गीता-कुरान सी पावन,
 गंगाजल सम होती है ।
निज संतति हित माँ!
नित नव स्वप्न संजोती है।
जो कुछ पाया माँ से पाया,
 फिर अपनी क्या जीत लिखूँ?
मैं खुद माँ की रचना हूँ फिर,
माँ पर कैसे गीत लिखूँ ?
माँ से ही सब रिश्ते नाते,
माँ से ही सब अपने हैं ।
माँ से ही रमजान-दिवाली,
 माँ से ही सब सपने हैं।
माँ के बिन सब जग है सूना,
 कैसे जग की रीत लिखूँ?
मैं खुद माँ की रचना हूँ फिर,
 माँ पर कैसे गीत लिखूँ ?
ईश्वर ने सब जतन कर लिए,
हर घर में पहुँच न पाया था
तब उसने सब सोच समझ,
 माँ का प्रतिरूप बनाया था।
 माँ तो है देवों से बढकर,
मातृ चरण की प्रीत लिखूँ ।
मैं ख़ुद माँ की रचना हूँ ,
फिर माँ पर कैसे गीत लिखूँ?
माँ के आशीषों की शक्ति ,
जब अपना रूप दिखाती है।
बड़ी से बड़ी सुनामी भी तब,
चौखट पर रुक जाती है।
माँ की ममता की स्याही से,
जीवन का नवगीत लिखूँ?
मैं खुद माँ की रचना हूँ फिर,
 माँ पर कैसे गीत लिखूँ? 


   संजय श्रीवास्तव "प्रज्ञा "
     विदिशा (मध्यप्रदेश)
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नौ दस माह लिये कुक्षि में जिसने सब भोग विलास बिसारा।
जाकर रूप अनूप दिखा सबसे पहले जब नैन उघारा।
पाँव उठा पहला जिसने तब हाथ बढ़ा कर अंक पसारा।
होंठ हिले पहले तब 'नंदन'
 माँ! बस माँ! यह शब्द उचारा।।1।।
जाकर पावन गोद सुहावन ,
शीतल पीपल छाँह सरीखा।
पीकर दूध सनींद शिशु सुख
देख लगे अमरावती फीका।
'नंदन' हूक उठे उर माँ सिर देख बुखार खरोंच तनी सा।
वैद बुलाकर दीठि झराकर माँ भर माथ लगावय टीका।।2।।
आतप झेल सहे चुपचाप कहे न कभी सब भेद छुपावे।
माँ उपवास करे दिन रैन,
 परन्तु हमे भरपेट खिलावे।
झूर पलंग हमें पौढ़ाकर ,
सीलन में  खुद रात बितावे।
माँ सम 'नंदन' को इस जग में ,
अपना सुख देकर दुःख बुलावे।।3।।
अम्बर सागर बादल माँ अरु पर्वत नागरबेल विताना।
माँ अमरी शबरी जसुदा गिरिजेश सुता सिय वेद पुराना।
दान दया ममता बलिदान सनेह  तपस्या अलौकिक नाना।
वास करे नित प्रेम समर्पण माँ उर 'नंदन' शील निधाना।।4।।


    रोहिणी नन्दन मिश्र
       गोण्डा, उ॰प्र॰

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इष्ट से पूर्व हो जिसकी पूजा, 
वह तो बस माँ ही होती है।
जिसका कोई पर्याय ना दूजा,
वह तो बस माँ ही होती है।।
जीवन की आपाधापी में जिसका,
स्मरण   मात्र स्फूर्ति जगाता है।
जिसके हाथों का स्पर्श मात्र,
मीठी लोरी बन जाता है।
जिसके आँचल की छाँव में,
खुशियाँ भी इठलाती हैं।
वह तो बस माँ ही होती है।।
निराशा के बोझिल क्षणों में,
जो आशा के दीप जलाती है।
सारी खुशियाँ हमको देकर जो,
आँसू सारे पी जाती है।
कभी ना लेती हम से कुछ भी,
 बस दोनो हाथों से लुटाती है।
 वह तो बस माँ ही होती है।।
गुण सारे देकर अपने हमको,
अवगुण सारे हर लेती है।
चाहे जितनी हों भूलें हमसे,
क्षमा सदा कर देती है।
विपदा में भी जो हँस कर,
मृत्यु से भी लड़ जाती है।
 वह तो बस माँ ही होती है।।
जिसकी छाँव में सारा जीवन, 
  निष्कंटक     कट जाता है।
जिसके मुख का तेज  देखकर,     
अंधकार      छँट जाता है।
जिसकी मीठी बोली सुन कर,
कोयल भी सकुचाती है।
वह तो बस माँ ही होती है।।
दुर्गम से दुर्गम पथ पर जो,
 निर्भीक निडर बढ़ जाती है।
स्वयं काँटों पर चल कर जो,
घर को स्वर्ग बनाती है।
जिसके समक्ष सारे तप फीके,
देवी भी शीश नवाती है।
वह तो बस माँ ही होती है।।


     रेवा सिंह
वाराणसी,उत्तर प्रदेश 
 
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मेरे मन की क्षुद्र कुशा से, 
तेरी यादें यूं लिपटीं ।
संघर्षों की धूप में जैसे ,           
शीतल ममता हो सिमटी ।
सघन विटप पर घने- पात की,   
वल्लरी ज्यों लहराती है ।
जीवन मेरा गढ़न तुम्हारी,           
छाँव कीमती  थाती है ।
कोमल सी मृदु हिलोर ,             
स्पर्श तुम्हारा दे जाती,
रेशम सी है छुअन तुम्हारी,         
अब भी मन को सरसाती।
दूर बहुत हो माना किन्तु,           
मन में दृढ़ भावना रहे ।
श्वास-श्वास मुस्कान तुम्हारी ,
पल-पल मेरी बाँह गहे ।
माँ समग्र है, मात्र न काया ,
अब तुमने ही समझाया । 
धरती अंबर चंद्र सूर्य में ,         
तुमको ही मैंने पाया ।
'रेवा'  में मिल नीर हुई तुम ,
कल-कल कर दुलराती हो ।
सीता सम माटी मे मिलकर, 
माँ हर क्षण मुस्काती हो।
मातृ तत्व जब पंच तत्व में, 
हो जाता है एकाकार।
धरती बन साकार स्नेह-सान्निध्य,
हुआ ज्यों निराकार ।
भूमि पर कुहनी सिरहाने ,   
श्रांत मनुज जब सो जाता।         
उसी ब्रह्म माता की स्नेहिल,     
गोदी में वह खो जाता।


 डॉ आरती दुबे
इन्दौर, मध्य प्रदेश 
     
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मांँ से ममता माँ ईश्वर का रूप,ईश्वर की दिव्यतम सुकृति
दया,ममता,प्रेम-दुलार,मांँ आशीष भरी व्यवहारिक प्रकृति
माँ जीवन का संबल,माँ ही श्वास,माँ ही साँसों का स्पंदन
माँ ही स्वर्ग रूप,जननी के चरणों की धूलि मस्तक का चंदन
माँ से ही जीवन का वाद्य,माँ से उस वाद्य में सृजित संगीत
माँ ईश्वर की पुण्य प्रार्थना,माँ के आशीषों से सम्भव हर जीत
माँ के स्नेह जल से सिंचित होकर घर-आँगन बनता नंदन वन
माँ मेरे मन मंदिर में रहती माँ का सर्वदा शीश झुकाकर अभिनंदन है
मांँ प्रथम गुरु,मांँ प्रथम पूज्य,है माँ से ही संस्कारों की शाला
संतति के संकट के आगे माँ दुर्गा बन लिए हाथ में भाला
है अन्न पूर्णा,माँ सुखदात्रीमाँ दुखहरणी,माँ आशाओं का अभिवादन
स्वर्ग से बढ़कर माँ की ममता,बारम्बार माँ के चरणों में वंदन है
रक्त स्वेद से मुझको गढ़कर,है सुंदर-सा आकार दिया
त्याग अपनी इच्छाओं को
 सब कुछ मुझ पर वार दिया
मैं माँ की हूँ प्रतिच्छाया माँ से ही महके सब घर आँगन
जग के सब नातों से ऊँची कृति और कृतिकार का बंधन
स्नेहशीला माँ! मैं तेरी रचना,माँ कैसे तुमको प्यार जताऊँ मैं!
धन्य-धन्य हूँ तेरे जीवन में आकर,अपने भाग्य पर इठलाऊँ मैं
जीवन में सब पाया है माँ जब जब बरसा तेरे नेह का सावन
कुछ कह लूँ,कितना ही लिख लूँ,कम लगता स्नेह सिक्त शब्दों का गुम्फन 


  पूनम मैहता

कैथल, हरियाणा