हिन्दी काव्य कोश~ तब गाँव हमें अपनाता है


प्रकृति के वरदानों पर जब
  दिल सम्मान समाता है,।1।
प्रकृति के गीतों में जब
  जन-मन रंगता जाता है,।2।
प्रकृति के आलिंगन से हर
  कष्ट सिमटता जाता है;।3।
मन निर्मल दिल कंचन बन
  तब गाँव हमें अपनाता है।।4।
श्रम प्रतिमान उच्च रत जीवन
  श्रद्धा शीश नवाता है,।5।
चूल्हे का भोजन तन सीझे
  स्वाद मधुर जी भाता है,।6।
माटी की सोंधी मधुर सुगंध
  कोई थाली में धर जाता है;।7।
धरती गोदी तन बच्चा बन
  तब गाँव हमें अपनाता है।।8।
कच्चे घर की देहरी पर
  कोई घूँघट में लजाता है,।9।
स्त्री की चंचल पायल से
  आंगन संगीत सुहाता है,।10।
रिश्तों के ताने-बाने से
  कोई मंद-मंद मुस्काता है;।11।
नेह विरल तन प्रेम मगन
  तब गाँव हमें अपनाता है।।12।
जब सावन का झूला बागों में
  स्मृति में जी जाता है,।13।
जब अमराई की कलियों का रस
  जिह्वा पे आ जाता है,।14।
संबंधों का अपनापन 'उपवन'
  नैनों में भर-भर जाता है;।15।
मन कच्चे धागे बँधा चले
  तब गाँव हमें अपनाता है।।16।
शहरों की आपाधापी से
  जीवन नीरस हो जाता है,।17।
यंत्रों की भूलभुलैया में
  तंत्रों का दम घुट जाता है,।18।
नैतिकता व मूल्यों का तन
  छलनी-छलनी हो जाता है;।19।
स्थिरता, शान्ति, सरलता को
  तब गाँव हमें अपनाता है।।20।

- शैलेष पाण्डेय 'उपवन'
- प्रयागराज, उ०प्र०
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यह अखिल विश्व जिसका तनय,
 तब गाँव हमें अपनाता है।
जब अंतस कुंठित, बोझिल जीवन कर,
दर्प हमें भटकाता है।।
उस टूटे मन का संरक्षक बन,
 तब गाँव हमें अपनाता है।।
जिस माटी की सुगंध व रंग,
हर कण रक्त के रचा बसा।
हम कभी दर्द उसका न समझे,
उलटे सौंपा उपहास सदा।।
फिर भी वृद्ध दादा दादी सा,
वह भूल हमें कब पाता है।
काल चक्र जब देता ठोकर,
 तब गाँव हमें अपनाता है।।
हम विकसित हुये बहुत फिर भी,
लगता कुछ पीछे छूट गया।
इस शहरी चकाचौंध में फंस,
अपनत्व गांव का टूट गया।।
पर अन्तर्मन के इक कोने में,
कोई बुझी आग्नि दहकाता है।
जब शहरी स्वपन डसे विषधर सम,
 तब गाँव हमें अपनाता है।।
जिन हलधर कांधों का आश्रय ले,
जीवन यापन करता जग सारा।
हम उन्हें नगण्य समझें क्योंकर,
जिनका जीवन जलती धूनी पथ अंगारा।।
हर डगर गाँव की महक उठे,
जब अतिथि कोई भी आता है।
जब जिसने सुमिरन किया हृदय से,
 तब गाँव हमें अपनाता है।।

अनिल 'डफर'
फतेहपुर, उत्तर प्रदेश
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हृदय में स्वप्न सुनहरे हों, 
मन शहरों में रम जाता है।
संस्कार सुगंध गाँव की, 
भुला कहाँ वो पाता है?
जब कष्टों में जीवन आता है,
 तब गाँव हमें अपनाता है
धन वैभव की मन अभिलाषा 
मन में विकसित हो जिज्ञासा
व्यवधान अनेकों कम न हों
खंड़ित हो अपनी हर आशा
जब निदान निकल न पाता है, 
तब गाँव हमें अपनाता है।
भय भूखण्डों से होता हो
एकांत हृदय जब रोता हो
न अपना कोई दिखाई दे
मन व्यथित रहे न सोता हो
जब भटका मन कुमलाता है, 
तब गाँव हमें अपनाता है।
अपनों में अपने खो जाऐं
बिष वेल सहज ही बो जाऐं
हो अंधकार का सामराज्य
निज सभी हितैषी सो जाऐं
मन अंधकार सा छाता है, 
तब गाँव हमें अपनाता है।
हो अंतर मन में कोलाहल
रहे व्यर्थ सी मन हलचल
व्यवधानों में हर श्वास रहे
हो पग पग पर ही छलबल
'योगी' एकान्त सताता है, 
             तब गाँव हमें अपनाता है।              

योगेन्द्र 'योगी'  
अतरौली, अलीगढ़
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व्यथित हृदय औ सजल नयन से,
अनजान शहर में,
जब जब हम घबराते हैं ।
दुखों से घिरे संतप्त हृदय को,
जब अपने हमें बहुत याद आते हैं।
जननी से जब मिलने को ,
व्याकुल मन हो जाता है ।
फिर माँ बाबा सा स्नेह लिए 
तब गाँव हमें अपनाता है।(२)----
चांद को छूने की आस लिए,
 हम गाँव छोड़ शहर को आते हैं ।
पर शहरों में देखा हमने,
 शिक्षा शिक्षक बिक जाते हैं ।
सीधे-साधे जनमानस को ,
असभ्य कह कर कोई गुर्राता है,
 फिर माँ बाबा सा स्नेह  लिए 
तब गांव हमें अपना है॥(३)--
जीवन की आपाधापी में,
जब तन मन मेरा थक जाता है।
माँ की गोदी सा गाँव मेरा,
फिर  याद बहुत ही आता है ।
माँ की लोरी को सुनने को,
 जब बालमन अकुलाता है ।
फिर माँ बाबा सा स्नेह लिए 
तब गाँव हमें अपनाता है(४)------
दुवरा, चौबारा, घर, अंगना ।
 जहाँ ताल तलैया सब अपना ।
 जीवन एक कोठरी में,
 सिमट सा जाता है ।
तब खेतों में ट्यूबेल का 
लहराता पानी,
याद बहुत ही आता है।
फिर माँ बाबा सा स्नेह  लिए,
 तब गांव हमें अपनाता है।
(५)------
रहे ना हाथ में एक भी पाई,
 बंद हो जाएँ सारी कमाई।
जिस गाँव को त्याग बने शहरी,
 फिर घोषित हो जाएँ हम बाहरी। 
फिर माँ बाबा सा स्नेह लिए.. 
तब गाँव हमें अपना है।
(६)-----
जब बहुत बड़ी विपदा आए 
अपना-पराया न समझ आए ।
 महामारी बढ़ती ही जाए,
किंकर्तव्यविमूढ़ मन हो जाए ।
जीवन की जब ना आशा हो , 
छायी जब घोर निराशा हो ।
तो जीवन ज्योति जला करके।
फिर माँ बाबा सा स्नेह लिए,
 तब गाँव हमें अपनाता है॥

मधुलिका
गाजीपुर उ० प्र०
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जब क्लान्त विश्रांत मन ,
चैन कहीं नहीं पाता है।
अजनबियों की भीड़ में,
अपना नज़र नहीं आता है।
अपनी मिट्टी की खुशबू को,
बेकल मन अकुलाता है ।
तब गांव हमें अपनाता है।
पड़े फफोले तन मन पर जब,
मरहम न कोई लगाता है।
जब बोझ उठाये जीवन का,
ये शहर हमें भरमाता है।
जब तिल तिल मरती साँसों को,
नवजीवन मिल नहीं पाता है।
तब गांव हमें अपनाता है।
ठोकर गैरों की खा खाकर ,
स्वाभिमान मर जाता है ।
रात दिन तन मन को गलाकर,
परिवार नहीं पल पाता है ।
अपने खेतों से बिछड़ने की,
जब रोज सजा मन पाता है।
तब गांव हमें अपनाता है ।
आ अब लौट चलें अपने घर,
अपना घर आज बुलाता है।
घाट बाट सब याद हैं करते,
पनघट गीत सुनाता है।
जल की कलकल चिड़ियों के स्वर,
ये मन सुनना चाहता है।
तब गांव हमें अपनाता है ।



  राजेश जोशी 
  उत्तरकाशी