हिन्दी कहानी-माँ की डायरी/अभिषेक कुमार अभ्यागत || Hindi Story Maa Ki Dairy/Abhishek Kumar Abhyagat

 

हिन्दी कहानी-माँ की डायरी


उन दिनों माँ बहुत बीमार रहा करती थी । मैं पटना में रहकर यू.जी.सी. नेट की तैयारी कर रहा था । मेरे पास फोन भी नहीं था । मकान मालिक के फोन से ही घर पर बात होती थी । मुझे कभी फोन करना होता तो, मैं पब्लिक बूथ पर चला जाता था । रात को करीब बारह बज रहे थें । मैं अपने कमरे में पढ़ाई कर रहा था कि, मकान मालिक की छोटी बेटी निक्की हाथ में अपने पापा का मोबाइल पकड़े दरवाजे को नाॅक की । मैंने जब दरवाजा खोला तो देखा कि, निक्की हाथ में फोन लिए खड़ी है ।
 मैं कुछ बोलता इससे पहले वह बोल पड़ी - 
 "अमर भैया! आपके घर से आपके पापा का फोन है ।"  
वह मेरे हाथों में मोबाइल पकड़ा कर सीढ़ियों से ऊपर चली गई । मैं हाथ में मोबाइल पकड़े उसी की ओर देखता रहा । मैंने मोबाइल को कान से लगाया और बोला  -
 "हल्लो पापा!"  
उधर से कोई आवाज़ नहीं आई । मैं कान में मोबाइल सटाए रखा कि एक भी शब्द उधर से सुनाई पड़े । बड़ी देर बाद सिसकियों की आवाज़ आईं  । फिर दर्द में डूबी, काँपती हुईं स्वर सुनाई दी -
 "बेटा..!" 
पापा की आवाज़ ने मुझे भीतर तक हिला दिया ।  मैं समझ गया कि माँ अब नहीं रही । मैंने इधर से कहा -
"पापा, माँ तो ठीक है न!" 
उधर से रून्धे गले से आवाज़ आई - 
"बेटा जल्दी घर चले आव,  तुम्हारी माँ बहुत सीरियस है । वह तुम्हें देखना चाहती है । " 
यह सुन मैं बेसूद होकर वहीं बेड पर गिर पड़ा । मैं माँ की यादों में खोने लगा । मैं पटना माँ से लड़ कर आया था । माँ मुझे भेजना नहीं चाहती थी । इस बात को लेकर मुझे और मेरी माँ के बीच रोज बहस होती । मैं अपनी जिद्द से पीछे हटने को तैयार नहीं था। और ना माँ अपने जिद से पीछे हटने को । माँ मुझे अपने से दूर होने ही नहीं देना चाहती थी । माँ के इस बर्ताव ने मुझे कुछ दिनों के लिए जिद्दी बना डाला था ।
                    पापा उसे कितना समझाते की वह अब बच्चा नहीं रहा । उसके भीतर दुनियादारी की समझ तुम क्यों नहीं आने देती । उसे कब तक बच्चा बनाए रखोगी । देखों वह कितना बड़ा हो गया है । उसके जूते अब मुझ में आते हैं । माँ की जिद्द के आगे पापा भी हार मान जाते । वह रूठती तो हम दोनों से दो-दो, चार-चार दिन बाते नहीं करती । पर, और दिन से ज्यादा ख्याल रखा करती । बिना बोले ही चीज हाज़िर कर दिया करती ।
सुबह होते ही मैं मीठापुर बस स्टैंड चला आया । टिकट कराकर बस में बैठ गया  । सारी यात्रा मेरी माँ की यादों में कटती चली जा रही थी । माँ की वह डायरी, जिसे सोने से पहले वह रोज लिखा करती थी । दिनभर की सारी बातें, कौन आया, कौन गया, क्या मैंने कहा, क्या पापा ने कहा, कौन सी चीजें खरीदी गई, कितने में खरीदी गई, कौन सी चीजें बेची गई, किन से बेची, कितने में बेची । सारी बातें लिखती । वह अपने डायरी में मन की सारी बातें लिखती । वह भी जो हमदोनों से कहना चाहती, पर कह न पाती थी । वह सारी बातें मुझे याद आने लगी । यदि माँ को जानना चाहते हैं तो माँ की डायरी पढ़ लीजिए । माँ अपनी डायरी से कुछ भी नहीं छुपाती थी । जब वह हमदोनों से बोलना बंद कर देती तो, मैं और पापा उसकी डायरी चुपके से पढ़ा करते । वह लिखती  -
"आज अमन के पापा, अमन को मुझसे फिर अमन को दूर भेजने की बात कर रहे हैं। कहते हैं कि अमन बड़ा हो गया है । भला मैं कब कहती हूँ कि वह बच्चा है। वह तो पिता हैं । वह क्या जाने माँ की ममता । एक हीं तो लाड़ला है ।  चला जाएगा तो घर काटने को दौड़ेगा, फिर कौन मुझे माँ कहेगा । मैं किसके लिए पुआ पकाऊँगी । "
 माँ की डायरी पढ़ते हीं हमदोनों की आँखें भर आती । मैं शाम को पाँच बजे घर पहुँचा । माँ बेड पर लेटी सो रही थी । पापा उसके बगल में बैठे माँ की डायरी पढ़ रहे थे । मुझे देखते ही पापा ने इसारे से मुझसे कहा  - 
"तुम्हारी माँ अभी-अभी दवाई खाकर सोई है । इसे सोने दो!"
 मैं माँ के सिरहाने बैठ माँ को एक टक से निहारने लगा । माँ तो वह थी ही नहीं, जिसे छोड़कर मैं पटना गया था । वह तो कोई और हीं थी । मैंने पापा की हाथ में वह डायरी देखी । माँ ने अपनी डायरी का एक नाम दे रखा था । वह डायरी के कवर पेज पर मोटे अक्षरों में लिखी थी "मेरी सखी मेरी डायरी" पूछने पर कहती यह मेरे दुःख-सुख की अकेली सखा है, इसलिए मैंने अपनी डायरी का एक नाम मेरी सखी मेरी डायरी रखा है । 
 मैंने पापा की हाथ से माँ की वह डायरी लेकर उसे चुमा, मेरी आँखों से आँसू के दो बूँद उस पर टपक पड़े । मैंने डायरी को खोला माँ ने पहले पन्ने पर ही मेरा नाम लिखा था । मैं माँ के सिरहाने बैठकर रात भर एक-एक पन्ना पलट-पलटकर पढ़ता रहा । माँ की डायरी के प्रत्येक पन्ने पर मैं था । चाहे शब्द रूप में या भाव रूप में । पन्ना पलटते-पलटते मैं उस पन्ने तक पहुँचा जिस दिन मैं पटना लिए घर छोड़कर गया था । माँ ने अपनी डायरी में लिखा था -
"मेरे लाख रोकने, समझाने के बावजूद अमन चला गया ।  मैं जानती हूँ कि वह बड़ा हो गया है । उसे अधिकार है अपने बारे में कुछ कहने का । मैं भी चाहती हूँ कि वह पढ-लिखकर एक बड़ा आदमी बने, अपने जीवन में । पर, वह ममता का मोल मुझसे झगड़कर रूठ कर चुकाएं । यह तो मैंने कभी नहीं चाही थी ।  मैंने अपने जीवन में अमन के सिवा चाहा ही क्या है । वह छोड़कर मुझे चला गया ।  अब मेरे जीने का क्या अर्थ ।"
माँ की डायरी के ये शब्द मुझे माँ के गुनाहगार बना रहे थें । मैं माँ से आँखें नहीं मिला पा रहा था । माँ मुझे माफ करेगी भी या नहीं, यह सोचकर मैं लज्जा से गड़ा जा रहा था । माँ के सूखे गले से आवाज़ आई, "पानी..!" 
टेबल पर पड़ी पानी से भरे ग्लास को उठाया और माँ का सिर अपने गोद में लेकर बैठ गया और माँ को पानी पिलाने लगा । माँ बहुत कमजोर हो चुकी थी । उसकी आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ चुके थे । उसके चेहरे पर उदासी थी ।  पानी पीते हुए  उसकी नजर मुझ पर पड़ी । उसके चेहरे पर एक मुस्कान-सी तीर गई । उसने मुझे बाहों में भर लिया और फुट-फुट कर रोने लगी । माँ की रोने की आवाज़ सुनकर पापा कमरे से दौड़े चले आए । माँ को रोता देख मैं भी फुट-फुट कर रोने लगा । मैं बार-बार बस यही कहता, 
"मुझे माफ कर दो माँ! मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा ।" 
माँ भी बार-बार यही कहती -
"हाँ बेटा! तुम मुझे छोड़कर कभी मत जाना । मैं तुम्हारे बिना एक पल भी जी नहीं सकती । " 
दोनों को रोता देख, पापा की भी आँखों से आँसू छलक पड़े । 

अभिषेक कुमार अभ्यागत
रोहतास, बिहार


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