हिन्दी काव्य कोश~ पर्वत


अद्भुत है हिम पर्वत प्यारा।
शीतल जल की बहती धारा।।
पर्वत जीवन के प्रतिपालक।
प्रकृति के सौंदर्य के वाहक।।
जीव जन्तु का जहां ठिकाना।
औषधियों  का रहें खजाना।।
जीवन  का  पर्वत से  नाता।
वनस्पति खनिज का है दाता।।
पर्वत  वास  करती  भवानी।
मुॅ॑ह  मांगा  वर  देने  वाली।।
महादेव  कैलाश  विराजे।
बंसी  गोवर्धन  में  बाजे।।
मन  को  मोहे  पर्वतमाला।
हरियाली की ओढ़ दुशाला।।
पर्वत  की  छाया  के वासी।
सीधे  सादे  नहीं  विलासी।।
पर्वत न आंखों  में समाते।
अंबर  से  करते  हैं  बातें।।
तेज पवन को जिसने रोका।
थाम लिया बारिश का झोंका।।
सुरक्षित देश की हो सीमाएं।
खड़ा हिमालय तन फैलाए।।
चाहत मानव की बढ़ जाती।
खोद  रहा पर्वत की छाती।।
हित अपना ही हरदम देखा।
खींच  रहा  पर्वत पर रेखा।।
पर्वत  जब  न दर्द सह पाते।
बनकर काल जमीं पर आते।।
पर्वत को न क्षति पहुंचाओ।
बाढ़ प्रलय को दूर भगाओ।।
ऊॅ॑चे  पर्वत  झुक  ना  पाए।
संरक्षण कर हम इसे बचाए।।

~ माता प्रसाद दुबे
      लखनऊ

सस्य श्यामला पुण्य धरा नग, हैं पर्वत किरीट की भांति जो |  
हरे भरे सुन्दर मनभावन तन, हैं कुण्डलाकार रुप विभूति वो |
औषधि दान करें जे सुन्दर, सुख दाता झरनों के मालिक हैं जो |
वर्षा जल को दिल में रख कर,गंध सुवासित करते तन मन हैं वो |
अरे खड़े योगी की भांति वो, सब ऋतुओं के शानी हैं जो | 
अपनी उन्नत काया से मनहर, बरसाते ऋतु में नित पानी हैं वो |
सिंध हृदय की विपदाओं को, हरने वाले  महा रतन रहे हो | 
मानव मन की इच्छाओं के, भरने वाले ईश हृदय आप रहे हो |
तांबा, रांगा, सोना, चाॅदी, लकड़ी औषधि दातार रहे हो | 
अपने हित साधन को त्यागा तो, सबके सुख भरतार रहे हो |
कठिन रुप धर रूपवान जे, मन मोहक सरताज रहे हो | 
अपने सब हित साधन  त्यागे तो, सबके हित के भाग्य बने हो |
भारत निर्मल वसुधा वीरों की, वीर स्वयं महावीर बने हो | 
उपकारी पर्वत हैं सुन्दर सुर, सब सुख साधन खुद आप रहे हो |

      ~ डॉ.निर्मल शास्त्री

उँचा पर्वत खड़ा हिमालय देश का पहरेदार है ।
सदियों से दुश्मन को ललकारे करते खबरदार है ।
पर्वत से बहते झरने गाते छन्द,सुगंध 
बिखेरते चन्दन, 
करती सदैव तुझे ये धरती, झुककर अभिनन्दन ।
ऋषि-मुनियों का तपोस्थल हो तुम, देवगण करते वास,
जड़ी -बूँटी का भंडारन हो, फल-फूल 
मिले कीमती घांस ।
पर्वत पर बादल गरजे, और मेघो को बरसाते है, 
बिजली कड़कती नभ पर भाई, पर्वत 
न घबराते है ।
आँधी से अड़ जाते पर्वत,  तब धरती सहम सी जाती है ।
ज्वालामुखी के कम्पन थामे,  धरा स्थिर हो जाती है ।
पर्वत के टुकड़े कण से, बनते महल अटारी सड़कें, 
पर्वत के जंगल में बसते,  भालू , चीता जागते तड़के।
पर्वत से गंगा-जमुना की , धारा बहती आती है ।
कल-कल,छल-छल गाती,  सुख संदेश सुनाती है ।
पर्वत के मस्तक पर है पामीर,  हैं इसी 
से  मान सरोवर झील,
पर्वत के चरणों में बसते, सदा यहाँ 
पे भील ।
हनुमान ने पर्वत लाकर, लक्ष्मण के प्राण बचाये थे।
गोवर्धन पर्वत उठकर, कृष्ण ने गोकुल के लाज बचाये थे ।
पर्वत हमे सीखता जग मे, चट्टानें बन कर जीना, 
रहो अडिग कर्तव्य पथ पर, चाहे प्राण न्योछावर कर देना ।
पर्वत पर मिलते हैं, केशर ,चन्दन और देवदार है ।
उँचा पर्वत खङा हिमालय देश का पहरेदार  है ।

~ बिजय बर्तनिया 
     मुंगेर बिहार 

पत्थर तन तुषार आच्छादित, 
धवला पर्वतराज हिमालय हूँ। 
देवों के देव महादेव की नगरी,
देव पर्वत कैलाश शिवालय हूँ।  
गोमुख ,देव प्रयाग, केदारनाथ,
बद्रीनाथ, हरिद्वार देवालय हूँ। 
कैलाश,ॠषिकेश, मानसरोवर, 
आध्यात्म बोध ध्रुव,बौद्धालय हूँ।  
सदियों से खड़ा अटल,अविचल,
पावन पर्वत,संत विश्रामालय हूँ। 
सिन्धु,गंगा,ब्रह्मपुत्र उदगम स्थल,
बौद्ध,जैन मुनि निर्वाण आलय हूँ। 
माणिक्य,पन्ना,रत्न संपदा गर्वित, 
कल्पवृक्ष,जीवन मोक्ष मंत्रालय हूँ। 
युगों युगों से ऋद्धि-सिद्धि याचक,  
देव,दानव, मानव तपस्यालय हूँ।  
वर्षों से खड़ा सीमा प्रहरी बनकर,
दुष्ट,दलन,दनुज मर्दन दंडालय हूँ।
तन व्यथित,भ्रमित प्राणी जन मन,
एकान्त पावन शान्त योगालय हूँ।
सुमेरू,निषेध,नील,श्वेत,श्रृंगी पर्वत,
हिमवान, हेमकुट पर्वत आलय हूँ।
संजीवनी पुष्पित,पल्लवित आँगन,
दुर्लभ जड़ी-बूटी महा संग्रहालय हूँ। 
अलौकिक देव कैलाश,मानसरोवर,
पर्वत उत्तुंग शिखर आनन्दालय हूँ।
वृहदाकार,शक्तिशाली हिम पर्वत,
जीवन चेतन करता स्वं अचेतन हूँ।
ताप पाकर द्रवीभूत होता मेरा मन, 
शीतल पवन अंक,शांति निकेतन हूँ।
पाक,चीन,म्यांमार,नेपाल,भूटान,
अफगानिस्तान,भारत का ताज हूँ।
किसे पता कल आकार क्या होगा,
सात देशों तक फैला मैं  आज हूँ।

~ बिरेन्द्र सिंह 'राज' 
        नोएडा 

धरती से अंबर तक पहुंचा अलबेला धरणीधर
ईश्वरीय अनुताप का प्रस्फुटित अवतरण भूमिधर
आद्रि,शैल,गिरिराज सब तेरे  आभूषण-अलंकार
भव्य ,अलौकिक ,व्यापक ,अभ्यंकर नग-शेखर
अनादि, अनंत..तुम स्वयंभू अविनाशी
अतल जल हो या भूतल,सारभौव तुम प्रत्याशी
नहीं तेरा कोई किनारा,ना बहाव-रिसाव
दृढता, अडिगता का निश्चियी प्रतिमूर्ति
ना लोभ-प्रलोभ,ना क्षोभ-प्रतिशोध
वैमनस्य-विकार रहित प्रेरणास्रोत
तुम हो मानव की अभिलाषा की पराकाष्ठा
विश्व-विजय का आखिरी लक्ष्य-बिन्दु..
मेघों के गर्जन-तर्जन से झंकारित तुंगनाथ
हरे-भरे वनों से आच्छादित श्रृंगनाथ
कौतूहल, जिज्ञासा का विकराल आकर्षण
असंख्य जीवों का अछूता आश्रयदाता
कृष्ण के गोवर्धन, शिव के कैलाश
हर देवों के हो तुम ही निज निवास
ऋषि-मुनियों की साधना-स्थली
खनिज-संपदा का दुर्लभ भंडार
ऐसी नहीं कोई  जगजाहिर  वाणी
करें जो संपूर्ण पर्वत का गुणगान
नदियाँ बहे, करे पग छुकर श्रृंगार
जल-प्रपात  ,करे अभीभूत प्रलाप..

~ अर्चना श्रीवास्तव
       मलेशिया