हिन्दी काव्य कोश- दिनकर

 
जग का अंधकार चीर कर 
रोज़ सवेरे आते हो तुम 
नभ को और प्यारी धरती को 
जगमग कर जाते हो तुम 
सभी जीव के प्राण आधार हो
प्रत्यक्ष देवता तुम्हें प्रणाम 
सोई प्रकृति को पुनः जगाने 
करते तुम ऊर्जा का दान 
ताप तुम्हारा मेघ रूप बन 
इस धरती की प्यास बुझाते 
रखते तुम हम सब का ध्यान 
तुमसे पाकर जीवन शक्ति 
पुनः उल्लसित जीव जो होता 
करता फिर वह सारे कार्य 
ईश्वर को धन्यवाद वह देता 
रहता हरदम ऋणी तुम्हारा 
तुम हो हम सबके भगवान 
मन से रिकत्तिता तुम हरते 
ह्रदय को फिर आशाओं से भरते 
देते सबको तुम यह शिक्षा 
रुको नही तुम बड़ते जाओ 
अपने लक्ष्यों को तुम पाओ 
देते सबको तुम नई राहें  
मानें स्वामी तुम्हें दिशाएँ 
तुम ही जीवन का आधार 
बिना तुम्हारे हर धड़कन है 
मृत्यु समान वो है बेकार 
अपनी स्वर्णिम किरणों से तुम 
हर लेते जग का अँधियारा 
लालिमा से रंग देते तुम 
दूर तलक फैला नभ सारा 
तुम्हीं से पाकर पावन ताप 
होती नव अंकुरित यह धरती 
होता नव संचार उमंग का 
फलती -फूलती सजती धरती 
भगवन मेरे ह्रदय गगन में
रोज़ सवेरे नियम से आओ 
सप्त अश्वों के रथ में बैठे
दूर तिमिर जग का कर जाओ 

~ अंजू सक्सेना 
      दिल्ली

रवि नभ आनन का हेम किरीट, वह तेजपुंज है ज्योतिर्मय,
जीवन-चक्र का मूलाधार वही, जगत कल्याण में तन्मय।
ग्रह-नक्षत्रों का वह अधिष्ठाता, सौर मंडल का सम्राट अजेय,
कलुष तम का वह संहारी, तुमुलनाद करे वह शंख विजय।
पसारे तम का मायाजाल, मोहिनी निशा खोल कर अलकें,
धराशायी होता वह श्यामल दुर्ग, खोले जब दिनकर पलकें।
निज आलोकित धनु से भानु, जब रश्मिबाण करे संधान,
भेद तिमिर का वक्ष-स्थल, प्रस्फुटित होता तब नव-विहान।
कल्याणकारी जीवनदाता, सृष्टि संरक्षक वह महारथी।
शक्तिस्वरूप ज्योतिरादित्य, जग प्राणाधार रश्मिरथी।
धरा प्रदक्षिणा करती उसकी, वह ऊर्जा-ज्योतिपिंड विराट,
जाना तभी यह भेद मनुज ने, जब शिक्षा ने खोले ज्ञान कपाट।
अनवरत उदय-अस्त के चक्र से, उर नवल प्रेरणा भर देता,
अंधकार नहीं जीवन अंत, प्रभात फिर प्रकाशमय कर देता।
हुआ चराचर जगत उपकृत, अमूल्य यह ईश्वरीय उपहार,
इसकी रश्मि मात्र से होता, जगत में नव-चेतना का संचार।

~ निभा राजीव
धनबाद, झारखंड

हे सूर्य देव! रवि ,दिनकर,भास्कर भगवान 
तुम्हारे तेज  से हो रही सृष्टि  दीप्तिमान ।।
उषा काल विकीर्ण होती लालवर्ण रश्मि तुम्हारी
कनक सी आभा पा सुरम्य रूप धरती सारी।। 
मंदिरों मे शंखनाद गूंजे मस्जिदों में अजान 
गिरिजाघर  में प्रार्थना ,गुरुद्वारो में अरदास।।
होते ही भोर का भान  पंछी आते नीड  से बाहर  
 सुरीले स्वर में गाते भरते अंबर में ऊंची उड़ान। 
निद्रा  से जाग ,आलस त्याग, लगता दिनचर्या  में  इंसान ,
तुम्हारी उष्मा से प्रकृति का रहता अंग-अंग  ऊर्जावान। 
उच्च  हिमालय के पीछे से निकल स्वर्ण  किरण 
आलोकित  करती जीव जंतु वनस्पति का कण-कण
पहर रूपी दिन के भिन्न में विभाजित  धूप  तुम्हारी
बचपन, यौवन  ,जरा जीवनकाल का सार बताती।
तुम्हारी महिमा से तमस,कुवास नमी  का काम  तमाम 
सजती धरा पहन लाल, बसंती ,धानी, सुनहरे परिधान ।।
नकारात्मकता हरकर सकारात्मकता  भरकर करते 
तुम तेज से अपने चेतन अवचेतन में सुख का संचार ।।
तुम्हारे उदय-अस्त से  ऋतुचक्र  दिन रात बनते है
नव सृजन को निश्चित उत्पत्ति,अवसान संग चलते है।।
निरंतर  चलते,तपते ढलते करते तुम सर्व कल्याण 
हे सूर्यदेव! तुम्हारे तेज  से हो रही सारी सृष्टि दीप्तिमान। ।

     ~ सुदेश सैनी
       नई दिल्ली।

दिनकर तुम्हें नमन
दिनकर तुम्हें नमन, 
ऊर्जावान, आलोकित, तेजपुंज तुम! 
प्रकाश से जीवन का संचार हो करते, 
अन्धकार का समूल नाश हो करते, 
जलते हो, तपते हो, पर नियम कभी भंग नहीं करते। 
मंत्रों से, जल अर्पण कर हम तुम्हारा अभिवादन करते 
तुम्हारे आगमन से आनंदित हम हर नये दिन का आरंभ करते 
पेड़, पौधे, पक्षी सभी गीत खुशी के गाते, तुम्हारा स्वागत करते। 
तुम्हारे  स्वर्णिम किरणों से प्रकृति की धानी चुनरिया  
का रंग निखरता, 
लाल, नारंगी और पीत रंग का आसमान पर अद्भुत समन्वय होता, 
हर एक कलाकार का हृदय कविता रचने और चित्रकारी को उन्मत्त होता। 
ग्रहण लगे या घिर जाओ घनघोर काली घटाओं से,
तेज न तुम्हारा मिटता है 
तुम्हारे दर्शन जो न होते वर्षा में, हर जीव त्राहि त्राहि करता है।
युगों युगों से प्रज्वलित तुम, सृष्टि का निर्माण हो करते, 
कभी न थकते, कभी न रुकते,अपने पथ पर निरंतर बढ़ते, 
कई नामों से पुकारे जाते, हर घर में तुम पूजे जाते 
हम भी हो ज्ञान प्रकाश युक्त, यश के नभ पर दमके 
अन्धकार मन का हरे, नव जीवन का संचार करे। 

~ आराधना अग्रवाल 
    मुंबई, महाराष्ट्र

ले कर चिर  सन्देश ज्ञान का, नित अनंग में, 
दिनकर  आते नित्य भोर किरणों के संग में !!
निशदिन  नई  प्रेरणा  लेकर  नव  उमंग में,  
खग- मृग सब हर्षित हो उठते वन-उपवन में ! 
प्रतिदिन  नूतन उर्जा  भरते तुम  जगती  में,
अन्धकार  का  पीछा  करते नील गगन में !!
सप्त -अश्व के रथ पर नित  केसरिया रंग में,
दिनकर  आते नित्य भोर किरणों के संग में !!
जग, जड़- चेतन को  तुमने  प्रकाश  दिया है, 
सतत  चले हैं,  कब तुमने अवकाश लिया है ? 
तुम्हीं   प्रेरणा –पुंज, कर्म -पथ  के  अनुगामी,
सबको  तुमने  एक  मुक्त  आकाश दिया है !!
वर्षा, ग्रीष्म, शरद, शीत, शिशि, ऋतु  बसंत में,
दिनकर  आते  नित्य भोर किरणों के संग में !!
नमन  तुम्हें  हे  मार्तण्ड  दोउ  जोरि करों से, 
स्वागत करूं  तुम्हारा  नित शुभ शंख स्वरों से 
जल- थल- नभचर, पादप  सब  के जीवनदाता,
हर्षित धरणी भी, गुंजित  मधुकर  निकरों से !!
नव- स्फूर्ति नव- प्राण भरे  नित अंग- अंग में,
दिनकर  आते  नित्य भोर किरणों के संग में !!

            ~ नवीन जोशी ‘नवल’
                बुराड़ी, दिल्ली !