हिन्दी काव्य कोश~ मेरा मन

 

Hindi-poem

"मेरा मन चाहता है,

बन जाऊँ कल्पवृक्ष मैं..

और पूरी कर दूँ,

उन बच्चों की हर इच्छा 

जो चाँद को रोटी समझ

रोते हुए सो गए,

उनके आँसुओं से भीगे हुए 

मलिन कपोलो पर,

रख दूँ ओस की नमी।

मेरा मन चाहता है, 

बन जाऊँ कल्पवृक्ष मैं...

थमा दूँ, 

उनके खुश्क हाथों में 

उनका प्यारा सा बचपन,

खेल-खिलौने, 

भर ले अपने नन्हे हाथों में 

सपनों की वो दुनिया सारी।

मेरा मन चाहता है, 

बन जाऊँ कल्पवृक्ष मैं...

कंधों से उतार फेंक दूँ,

जिम्मेदारी का बोझ 

और थमा दूँ, 

किताबें रंग बिरंगी 

उनके सपनों जैसी 

रंग भरने सूनी आँखों में।

मेरा मन चाहता है,

बन जाऊँ कल्पवृक्ष मैं...

यकीन दिलाऊ उन्हें, 

दुनिया बुरी नहीं है

कुछ लोग बुरे हैं बस

पहचान करना सिखा दूँ,

अच्छाई की सच्चाई की

और करा दूँ विश्वास कि

हिम्मत हारते नहीं ।

मेरा मन चाहता है,

बन जाऊँ कल्पवृक्ष मैं...

लौटा दूँ,

उन्हें उनका

बचपन परियों के सपने, 

खींच के ले आऊँ, 

अंधेरो में घुटती उनकी साँसो को 

और रख दूँ,

मासूम हँसी लवो पर।

मेरा मन चाहता है,

बन जाऊँ कल्पवृक्ष मैं...

और पूरे कर दूँ मजदूरों के 

बच्चों  के हर सपने को,

जो समाज ने छीन लिए 

गरीबी ने निगल लिए, 

तोड़ डालूँ...

उनकी हर इच्छा 

पर आकाश के तारे

जो छिन गए लौटा दूँ,

बचपन के अधिकार वो सारे 

हाँ आज मेरा मन चाहता है 

बन जाऊँ कल्पवृक्ष मैं... ।,,

- डॉ रूपल श्रीवास्तव 'शांभवी'

         दतिया म•प्र•

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मन मेरा मन से, मन की बातें करता है ,

कैसे कहूँ किसी से, मन मेरा डरता है ।

होता उपद्रव कहीं, लहू कहीं बहता है ,

कहीं  आशाएं टूटीं,मान कहीं ढहता है ।

जनक ने जननी को, ये कैसा उपहार दिया ,

जन्मपूर्व ही उसने,  जानकी को मार दिया ।

जड़मति ने जीवन की, जड़ में प्रहार किया,

उसी वृक्ष पर बैठकर, उसी का संहार किया ।

कहीं अपनी अस्मिता की, वो मांग रही भीख,

बचाओ इन देह पिशाचों से, दहाड़ रही चीख ।

ये कैसी राह चला मनुष्य, ये कौन सी लीक,

सकल मानव मन मलिन, अब पशुओं से सीख ।

आग की उन लपटों में, बहू कराह रही ,

अब तक थी चुप अब, कहना कुछ चाह रही।

पापों की कलियुग में, कहाँ कब थाह रही 

अब दर्द नहीं थमता ,कहीं हृदय नहीं रमता ।।

जहाँ बिन सीता राम नहीं, राधा बिन श्याम नहीं,

जहाँ बिन तुलसी धाम नहीं, देवी बिन ग्राम नहीं ।

जहाँ बिन सरस्वती ज्ञान नहीं, गायत्री बिन ध्यान नहीं ,

अचरज वहीं स्त्री का मान नहीं, जननी का सम्मान नहीं ।।

- विजय शुक्ल

 रायबरेली, उ.प्र.

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हर पल नव भावों की आशा, 

समझे गूढ़ विचारों की भाषा.. 

बसता इसमें बस अपनापन, 

चंचल, निश्छल सा मेरा मन... 

दिखता जब कोई दुखी इसे, 

नयनों से अश्रु घटा गिरे.. 

समझ प्रेम की परिभाषा, 

दर्द, तड़प भी खूब सहे... 

अधरों पर खिलते जब खूब सुमन, 

खुशियों से लहलहाता मेरा मन.. 

ख्वाहिशों के कुछ पंख लगाकर, 

उड़ने को आतुर रहे मेरा पंछी मन.. 

सम्मान के भावों से नजर झुके, 

अहसास हो गर्वित तो शीश तने.. 

उम्मीदों की जब झलके आशा, 

हर मुश्किल तब आसान बने.. 

जिज्ञासा से सम्भव सुघड़ सृजन, 

सुविचारों से सज्जित मेरा मन.. 

लोभ, रोष का करे प्रतिपल दहन, 

निर्मल और पावन सा मेरा मन.. 

- रक्षा गुप्ता

गाजियाबाद

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अपनी लेखनी की धार को पैना कर,

सत्य का सृजन कर!

कहता है!मेरा मन......

अपने अश्रुओं को रोक,

दृष्टि में आक्रोश पैदा कर!

कहता है!  मेरा मन.........

मशालों को छोड़,

हथियार उठा कहता है!

...... मेरा मन..........

थाम अपने हृदय की सिसकियां,

एक सैलाब पैदा कर!

कहता है! मेरा मन.......

क्रान्ति की जो आग है 

उसे प्रबल कर !

कहता है! मेरा मन.......

पट्टी आँखों पर बाँधे बैठी,

कानून की देवी.........

मेरे देश का अन्धा कानून!

कहता है !मेरा मन..........

चीखें भी नहीं सुनता,

बहरा हो चला  , कानून!

मेरे देश का......

कहता है!   मेरा मन........

ऐसी निर्ममता देखने को मिलेगी,

तपोभूमि पर......? चिन्ह लगाता  !     मेर मन...

कितनी मनीषा,प्रेरणा,प्रियंका

को अपनी बलि देनी होगी!

कहता है!      मेरा मन.......

अब भी मिलेगी सजा इन दरिंदो को........?

या अब भी होगी कोई और मनीषा ख़ाक........?

कहता है !  मेरा मन.....

- मधु राजपूत 

भीलवाड़ा राज

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सहज मेरा मन सहता है या इसकी एक विवशता है

कभी किसी ने न समझा मेरा अन्तर्मन क्या कहता है।

कोख से प्रादुर्भाव हुआ तो परख जांच पड़ताल हुई।

जन्मदात्री जननी की मुझ संग गति बेहाल हुई।

यदि दयावश हुआ मेरा आगमन तो यह परिवार की सहृदयता है।

कभी किसी ने ना समझा मेरा अन्तर्मन क्या कहता है?

मैं हूँ घर का मान सम्मान मुझ से घर की मर्यादा है।

बंधनों में जीने का मुझे सबसे करना वादा है।

जीना है मुझको वैसे ही जैसे समाज  कहता है

कभी किसी ने ना समझा मेरा अन्तर्मन क्या कहता है ?

हो गयी मैं अब बहुत बड़ी  आई  घड़ी विदाई की 

बड़ी बड़ी सीखों की कथाएं भर के मेरे कानों में पड़ी

कि अब दो घरों की इज्जत पर असर तेरे कर्मों से पड़ता है।

कभी किसी ने ना समझा मेरा अन्तर्मन क्या कहता है?

बन गयी बहू, बन गयी पत्नी अब से यही मेरा डेरा है।

वो था पिता का, ये घर पति का मेरा तो बस पग फेरा है।

सेवा करना बस धर्म है मेरा, मेरा अस्तित्व ये कहता है।

कभी किसी ने ना समझा मेरा अन्तर्मन क्या कहता है?

घर की सेवा, जीवन साथी की खुशियाँ, वंशवृद्धि है मेरे काज

इससे अधिक न महत्ता मेरी न तो कल थी न है आज।

संतानोत्पत्ति का कष्ट माँ बन मैं सहती नाम वंश सब पिता का बढ़ता है ।

कभी किसी ने ना समझा मेरा अन्तर्मन क्या कहता है?

इसी ऊहापोह में बीती जिन्दगी आ गयी देखो जीवन की सांझ 

झंझावातों में निकल गये दिन, टूटने लगी सांसों की मांझ

बेटों पोतों पति के कांधे चली अपने गंतव्य को थकी मांदी

कानों में अंतिम शब्द थे….भाग्यवान है बड़ी ये देखो

पीछे भरा-पूरा परिवार जो बसता है।

कभी किसी ने ना समझा मेरा अन्तर्मन क्या कहता है ?

– रंजना माथुर 

अजमेर राजस्थान 

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