आज की रचना- विधि का विधान


विधि का विधान

शाम के चार बजने को थे, अचानक दरवाजे की घंटी बजी। मन खुश हो गया,आज श्रीमानजी ऑफिस से जल्दी आ गए। जल्दी... पर क्यों, कैसे? प्रश्नों के उत्तर स्वयं ही ढूंढ़ती मै दरवाजे तक आ पहुंची। दरवाज़ा खोला, पहचानने का प्रयत्न करते मेरे मुंह से निकल पड़ा -"छोटी तू"। मैं उसे छोटी ही कहती थी। मैने उसे गले से लगाया और बांह पकड़ उसे ड्रॉइंग रूम तक ले आई। आवभगत के बाद बातों का सिलसिला जो चला तो लंबा चलता रहा, और कब शाम के चार से रात के सात बज गए पता ही नहीं चला। वो एकदम खड़ी हो गई। आंटीजी फिर आऊंगी, आप भी आइएगा कहकर चली गई। बातों बातों में उसने बताया कि उसके पति का ट्रांसफर इसी शहर में हो गया है। उसे मेरा पता मालूम था इसीलिए वो मिलने चली आई। वो तो चली गई, पर यादों की परतें खोल गई।

हम जिस शहर में पहले रहते थे, वहीं बाजू में उसका घर था। उसके पापा का अच्छा शानदार रेडीमेड गारमेंट्स का शो रूम था। दो बेटियां थीं उनकी। बड़ी सलोनी- अपने नाम के अनुरूप। छोटी रूपसा, यथा नाम तथा गुण। सलोनी के नयन नक्श सामान्य, रंग भी सलोना सांवला। इसके विपरीत रूपसा अपने रूप की छटा बिखेरती रूप की रानी। सलोनी सीधी सादी शांत सरल स्वभाव की, वहीं रुपसा उच्छृंखल, उद्दंड, वाचाल स्वभाव वाली। धीरे - दोनों बड़ी हो रहीं थीं। मेरे देखते ही देखते कॉलेज पहुंच गईं। रूपसा के रूप के चर्चे कॉलेज पहुंचते ही तेज़ी से वायरस की तरह वायरल होने लगे। उसे अपनी सुन्दरता पर अभिमान होने लगा। वो जहां तहां इतराती फिरती। पढ़ने लिखने में उसका जी ना लगता। रूप के प्यासे भवरों को अपने चारों ओर मंडराते देख फूली ना समाती। उसका सारा समय पढ़ने के बजाय सजने संवरने में निकल जाता।

ग्रेजुएट होने के बाद अमरलालजी को सलोनी के ब्याह की चिंता होने लगी। रिश्ते आने शुरू हो गए।लड़के वाले आते, सलोनी सज संवर कर चाय नाश्ते की ट्रे लेकर आती, मोम की गुड़िया बन बैठ जाती। लड़के वालों से पूरे टाइम रूपसा ही बतियाती रहती। परिणाम स्वरूप लड़केवाले जाते -जाते बड़ी बेटी के बदले छोटी का हाथ मांगते। ऐसा कई बार हुआ। पापा मम्मी अब रूपसा को सामने आने से रोकते, पर उस पर अपने रूप का नशा कुछ ऐसा चढ़ा था कि उस पर किसी की बात का कोई असर ही नहीं होता था, बल्कि स्वयं को और ज्यादा बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करने लगी। 

अंत में सलोनी ने निराश होकर निर्णय कर लिया की वो शादी नहीं करेगी, उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरी करेगी। सलोनी की पोस्टिंग दूसरे शहर के कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर हो गई और वो सुकून की ज़िंदगी जीने लगी। समय अपनी रफ़्तार से भागा जा रहा था वक़्त कब किसके रोके रुका है। एक दिन उसके ही कॉलेज के एक स्मार्ट प्रोफेसर ने उससे शादी का प्रस्ताव रखा। सुनकर उसे अपने  कानों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। उसके कानों में घंटियां सी बज उठीं। प्रसन्नता का परावर ना रहा। दोनों परिवारों की रजामंदी से दोनों की शादी हो गई। अतीत की सारी कटु, दुखद स्मृतियों को पीछे छोड़ सुख के सागर में सलोनी गोते लगाने लगी।

रूपसा को अपने रूप का ऐसा घमंड था, वो किसी से सीधे मुंह बात तक ना करती। जितने भी रिश्ते आते सबमें कुछ ना कुछ कमी निकाल कर मना कर देती। दिन निकलते जा रहे थे। देखते -देखते उसकी उम्र ढलने लगी, धीरे - धीरे रिश्ते आने ही बंद हो गए। खिलखिलाहट की जगह उदासी ने उसके चंद्रमुख पर डेरा जमाना शुरू कर दिया। चिंता की रेखाएं हर वक़्त उसके मुख पर छाई रहतीं। उसने सबसे किनारा कर लिया। उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा। पर अब बहुत देर हो चुकी थी। कमरा बंद कर वो घंटों रोती। अपने भाग्य को कोसती।एक दिन पापा ने उससे कहा - "बेटी हम तो ढलते सूरज हैं ,ना जाने कब ज़िंदगी की शाम हो जाए।" हम तुम्हारे लिए एक रिश्ता लाए हैं। प्लीज़ ....बेटी इन्कार मत करना। लड़का ४५ साल का विधुर है, दो बच्चे भी हैं, उससे तुम्हारी शादी कर हम अपने कर्तव्य से मुक्ति पाना चाहते हैं।" पिता की विवशता को अपनी नियति मान उसने स्वीकृति दे दी। रूपसा जिसे अपने रूप का इतना दंभ था, अपने अरमानों का खून कर, आकांक्षाओं को कुचल कर विधि के विधान के आगे नत मस्तक हो गई।

 ~ राधा सोहाने 
 रायपुर, छत्तीसगढ़

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