हिन्दी कविता~ अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए

 


जगत जननी भूमि का सम्मान होना चाहिए

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।

तप्त धरती की क्षुधा को सींचता अभिमान से।

फूटते हैं कोख अंकुर कितने इम्तहान से।

सूखी धरती हो या बंजर मांगते भगवान से।

उसमें उपजाते हैं सोना मेहनत औ बलिदान से।

सिंचित श्रम स्वेद धरा सम्मान मिलना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।।

जेठ की तपती दुपहरी, सावन या  बरसात हो।

पूस की कपकांपती ठंड का एहसास हो।

 अथक श्रम के बाद भी प्रतिफल उन्हें मिलता नहीं।

पत्थरों को भी तोड़ कर सोना निकलता नहीं।

उनके उपकार को वरदान समझना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।।

कभी वृष्टि सूखा पाला ,ताकते हैं मुंह निवाला।

खाद बीज श्रम को कोई नहीं देखने वाला।।

कर्ज लेकर भी सदा श्रम व्यर्थ हो जाता है।

अन्नदाता ही सदा विपन्न बन जाता है।।

मिट्टी के इन वीरों का सम्मान होना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।।

मत कर पलायन शहर अन्न कौन उपजाएगा?

हर एक व्यक्ति धरा का भूखा ही सो जाएगा

अन्नदाता जानकर उसे मान देना सीख लो।

मुस्कुराकर खुशी से उसको मसीहा मान लो।।

कृषक बंधु पर हमें अभिमान होना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।।


~ नमिता "प्रकाश "

लखनऊ -उत्तर प्रदेश

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राष्ट्र - रीढ़ है  !  परुष-पथ  आराम   होना चाहिए।

अन्नदाता   का    इस  धरा  पर  मान होना  चाहिए।

उठ  विहान  निश्छल  तू,   कर  ईश  वंदन,

बुभुक्षित क्षिति-पुत्र तू, माटी ललाट चंदन,

है  श्रम  ही  नियति,  न  श्रान्ति,  न  क्रंदन,

हो गर्मी, तूफान,बारिश, शीत का न  बंधन,

पुरुषार्थ  से ऊसर  धरा में हरियाली लाता,

प्राकृतिक विपदा से त्रास बलशाली खाता,

निरखता फसल सुनहरी तो दिवाली पाता,

अन्न संकलन राष्ट्र -हित  खुशहाली  लाता,

साधना- पथ  रत  स्वेद-श्रम बहाता  है,

प्रपंच  से   दूर  तू,  मेहनत  का  खाता  है,

व्यवस्था  किंकर  तू  शोषण  ही  पाता  है,

न तन  चीर  होता   किला  ढह  जाता  है,

धरा  के  धैर्य - देव  का, नित  सम्मान   होना चाहिए

अन्नदाता  का    इस  धरा  पर  मान  होना चाहिए।


~ सतीश नारनौंद 

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सानते हैं नित्य ही माटी में अपने  देह को।

झोंकते हैं बैल की भांति ये अपने देह को।

आहुति देते लहू और स्वेद की यज्ञाग्नि में

यह तपस्वी नित तपाते तप में अपने देह को।

जो खिलाते हैं निवाला , पेट सबका भरते हैं।

भूख से  हैं वो तड़पते खेद पर  करते नहीं हैं।

जो नहीं करते कभी चिंता किसी निज स्वार्थ की

रात दिन करते परिश्रम खेत और खलिहान में।

धूप, बारिश, शीतलहरी, आँंधी और तूफान में।

वे तिरस्कृत साधनों संसाधनों से दूर हैं

जो सहायक हैं सतत इस राष्ट्र के निर्माण में।

रीढ़ हैं जो देश की दुर्बल तनिक है हो रहा।

आधुनिक युग में कृषक अस्तित्व अपना खो रहा।

आत्महत्या कर रहे हैं भाग्य से होकर विवश

देख कर अपनी दशा यह अन्नदाता रो रहा।

दर्द के इनके  भी अब अवसान होना चाहिए।

जगत पालक की तरह सम्मान होना चाहिए।

देश का हर एक कृषक अनमोल है, वरदान है

अन्नदाता  का  धरा  पर  मान  होना  चाहिए।


~ रिपुदमन झा "पिनाकी"

धनबाद (झारखण्ड)

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रोपता है रोटियाँ वो, सींचता दिन- रात है।

फिक्र क्या— फिर पक्ष या विपक्ष में हालात है? 

अपनी सत्ता का वो रक्षक बन के उठ जाता है जब,

टिक न पाता सामने, फिर कोई झंझावात है।

ऐसे जीवट का भी कुछ गुणगान होना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।

है अनोखी बात कुछ बंदे के कारोबार में।

भूख लेकर बांटता है रोटियाँ संसार में।

हाय! ये निर्बोधता , बेचारगी की इंतहा।

रह गया निर्बल-निरर्थक —आज भी व्यापार में।

आदमियत का भी एक ईमान होना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।

बैल की, बीजों की, हल की औ कहानी खाद की,

सबसे बढ़कर इक कहानी, आदमी के स्वाद की,

लिख रहा जो पटकथा सबकी रसोई की उसे

हो गई इतनी कमी क्यों स्वयं से संवाद की?

इस कहानीकार का सम्मान होना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।

है यही देवत्व उसका, अन्न का वह ईश है।

जब अदालत थालियों की हो, वो न्यायाधीश है।

बात आती है जहां इंसाफ़ की उसके लिए,

न्याय से फिर आंकड़ा उसका वही छत्तीस है।

इस मुकदमें पर भी सबका ध्यान होना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।

जठर की अग्नि से उसका युद्ध जारी है अभी,

न्याय के आंगन में बाक़ी पैरोकारी है अभी,

श्रमिक है, वो पूज्य है, वो तात है, दाता भी है।

फिर भी क्यों मर्ज़ी बेचारे की बेचारी है अभी?

उसके हक में भी कभी मतदान होना चाहिए।

अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए।

 

  ~ अंजु 'अना'

जमशेदपुर, झारखंड 

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यामिनी  के  बीतते  ही,

 चल पड़ा है अन्नदाता।

निज स्वेद से है तरबतर,

सुंदर फसल है  उगाता।

शस्यश्यामल है धरा अब,

गुणगान  होना  चाहिए।

अन्नदाता  का धरा पर,

मान   होना   चाहिए।।1।।

सींचता है खेत दिन भर,

 जेठ की तपती अगन में।

कपकपाती रूह थर-थर ,

 उस कड़कड़ाती  ठंड  में।

घोर सावन क्यों न बरसे,

 बस! काम होना चाहिए।

अन्नदाता  का  धरा  पर, 

मान    होना    चाहिए ।।2।।

कर्मयोगी  कर्मपथ  पर, 

दो  जून  रोटी  चाहिए।

सीना धरा का चीरकर,

बस अन्न उगना चाहिए।

पुरुषार्थ के इस देव का,

यशगान होना  चाहिए।

अन्नदाता का  धरा  पर, 

 मान   होना   चाहिए।।3।।

प्रतिबद्ध है निज धर्म पर,

 मही को बनाता स्वर्ग है।

कटिबद्ध अपने  कर्म पर,

हलधर उगाता  स्वर्ण  है।

बलराम  के  पर्याय  का,

सम्मान   होना   चाहिए।

अन्नदाता  का  धरा  पर,

 मान    होना    चाहिए।।4।।

हो रहा क्या आज भू पर

यह भी  बताता मैं  चलूँ।

हलधर सिसकता वेदना में,

सोचता है  जहर  खा  लूँ।

उगाई फसल का दाम भी,

सम्यक ही होना चाहिए।।5।।

घर -बार अपना खो चुके

कुछ कर्ज  में डूबे  हुए  हैं।

"राम" भी बरसे  नही जब,

स्वयं  फाँसी  ले  चुके हैं।

कुंभकर्णी  नींद  से  अब,

सत्ता को जगना चाहिए।

अन्नदाता  का  धरा  पर,

मान     होना     चाहिए ।।6।।

विकास  का  आधार   ही,

ये  बेसहारा  क्यों   हुआ?

कृषि प्रधान  देश  में   यूँ,

जर्जर कृषक ही क्यों हुआ?

हलधर का जीवन भी अभी

"रौशन" ही  होना  चाहिए।

अन्नदाता   का   धरा   पर ,

मान     होना      चाहिए।।7।।


                            ~ रोशन बलूनी

                          कोटद्वार पौडीगढवाल 

                                  उत्तराखण्ड

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