शिक्षा त्रय और शिक्षण संस्थान- डॉ. शीताभ् शर्मा


शिक्षा त्रय और शिक्षण संस्थान

पूर्व चलने के बटोही! बाट की पहचान कर ले।
पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी।
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जुबानी॥
अनगिनत राही गये, इस राह से उनका पता क्या?
पर गये कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी।
यह निशानी मूँक होकर भी बहुत कुछ बोलती है।
खोल इसका अर्थ पंथी! पंथ का अनुमान कर ले।
हिन्दी हालावाद के सशक्त हस्ताक्षर कवि हरिवंश राय बच्चन की कालजयी कविता ’पथ की पहचान’ की उक्त पंक्तियों में जन्म से मृत्यु पर्यन्त की जीवन-यात्रा (बाट) पर प्रकाश डाला गया है। सम्पूर्ण मानव जाति सदियों से यह यात्रा तय करती आ रही है। इसी यात्रा को सुगम और सफल बनाने के प्रयास प्रत्येक मनुष्य करता है। इसी प्रयोजन में शिक्षा की महत्ता निर्मित होती है और शिक्षा से ही शिक्षक-शिक्षार्थी स्वतः अंतः सम्बंधित हो जाते हैं। शिक्षा से आशय, साक्षर मात्र हो जाने से कदापि नहीं क्योंकि यदि ऐसा होता तो कबीर, सूर, रैदास हिन्दी साहित्य में ख्याति अर्जित न कर पाते। अतः यह तो निश्चित है कि जीवन रूपी यात्रा के पड़ावों की समझ के लिए तत्वान्वेषी विवेक शील दूर दृष्टा होना चाहिए।
सनातन काल से ही आरम्भ करें तो पाते हैं कि पहले गुरू-शिष्य परम्परा सुदृढ़ थी। यहाँ गुरू माध्यम था एक शिष्य के जीवन को शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, नैतिक तथा मानवीय रूप से सुदृढ़ बनाने का। आज शिक्षा माध्यम है सम्पत्ति, पद और प्रतिष्ठा अर्थात् आजीविका प्राप्ति का।
   विज्ञान के बढ़ते प्रभाव से मानव ने एक नये युग का प्रवर्तन किया है उसने अपने लिए पूर्णरूपेण भौतिक संसार कुछ इस प्रकार निर्मित किया है कि शोध हो या विकास सबकी दिशा और अंतिम परिणति मात्र भौतिक रूप  तक कुछ इस प्रकार हुई है -
’’घरों में नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे।
खूब तलाश किया मगर कोई इंसान न मिला।।’’
इस भौतिकतावादी सभ्यता में सफलता का अर्थ ओहदों से है और यह प्राप्त होते हैं, मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली से। इस प्रणाली का एक ही नारा है कि कुछ ऐसा पढ़िए इस तरह पढिए, किसी ऐसे से पढ़िए कि नौंकरी में ऐसा पद प्राप्त कर लें जो धन व शक्ति का योग हो। बी.कॉम. प्रथम वर्ष के शिक्षार्थी महाविद्यालयों में इसलिए अनुपस्थित रहेंगे क्योंकि वे सी.ए., या सी.एस. की कोचिंग करेंगे। यह अर्जी वे अपने आवेदन के साथ लगाने की चेष्टा करते प्रायः प्रवेश प्रक्रिया के समय देखे जाते हैं अर्थात् जिस आधार पर वे सी.ए./सी.एस. के लिए पात्र होंगे वे उसी ज्ञान को प्राप्त किए बिना आगे अपितु बहुत आगे की तैयारी में जुट जाते हैं। हाय! हम कहाँ जा रहे हैं? हम यह कैसी पौध तैयार कर रहे हैं? यह तो महज एक संकाय का उदाहरण है। परन्तु स्थितियाँ चहुँ ओर  विकट सी हैं तो यहाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की वही पंक्तियाँ स्मृत हो आई -
’’क्या थे? क्या हो गये और क्या होंगे अभी?
आओ विचारें बैठकर, ये समस्याएँ सभी।’’
यह तो बात हुई शिक्षा और शिक्षार्थी की, और अब बात आती है शिक्षक की भूमिका की। मैकाले सांकेतित इस तंत्र में क्या शिक्षक कोई अहम् अवदान समाज और राष्ट्र को दे सकता है? क्या अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है?
इस संबंध में शिक्षकत्व के आदर्श प्रतिमान डॉ. राधाकृष्णन सर्वपल्ली के विचार अनुकरणीय हैं - ’शिक्षक वह है जो पढ़ाता है। अच्छा शिक्षक वह है जो पढ़ाने के साथ उदाहरणों के साथ समझाता भी है और श्रेष्ठ शिक्षक वह है जो पढ़ाने-समझाने के साथ ही विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करे अर्थात उसके जीवन को दिशा प्रदान करे’। स्पष्ट रूप से कहूँ तो शिक्षक में  यदि शिक्षक बोध है, तो कक्षा-कक्ष से किसी भी सद् विचार क्रान्ति के बीज रोपित किये जा सकते हैं। जिस प्रकार कवि लेखनी दुर्योधन को सुयोधन बना पाठकों की सहानुभूति प्राप्त करवा सकती है (’महाभारत की एक सांझ’, एकांकी -
भारत भूषण अग्रवाल ) ऐसी ही शक्ति शिक्षक की वाणी व व्यक्तित्व में होती है। इसे और सरलता से कहें तो हमारे ज्ञान कोश, विचार, भाव, कर्म और अभिव्यक्ति क्षमता  में यदि सामंजस्य है तो -
’’मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर/लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया।’’ की सिद्धि निश्चित है।
कामायनी में प्रसाद ने स्पष्ट कहा है -
’’ज्ञान दूर कुछ किया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की।
एक दूसरे से न मिल सके, यही विडम्बना है जीवन की।।’’
एक कक्षा के सत्तर विद्यार्थियों में से यदि एक ही मोहनदास करमचन्द, भगतसिंह या प्रेमचंद निकल जाए तो न सिर्फ वह गुरू धन्य है अपितु ऐसा व्यक्तित्व समाज, राष्ट्र से गुजरता हुआ सम्पूर्ण विश्व मानवता तक का कृतार्थ कर देता है। इतिहास साक्ष्य है कि प्रत्येक विराट व्यक्तियों के तेज का रहस्य, उनके गुरू-शिक्षकों से आरम्भ होता है जैसे एक चन्द्रगुप्त मौर्य पर्याप्त था चाणक्य के अखण्ड भारत निर्माण स्वप्न के लिए। एक नरेन्द्र (विवेकानन्द) भी तो पर्याप्त था पराधीन भारत के अध्यात्म दर्शन को सम्मान दिलाने के लिए ( विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो- 1893ई.)।

शिक्षण को सफल बनाने के लिए अपरिहार्य है कि हम शिक्षक स्वयं के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करें, विश्लेषण करें और आवश्यक है तो परिष्कार भी करें, जिससे अपने शिक्षार्थियों के व्यक्त्त्वि के महल को ज्ञान व मूल्य की ईंटों से सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकें। इस प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- अभिव्यक्ति क्षमता। चाणक्य के कथन से मेरी सहमति है -
’’एक शिक्षक के हाथ में प्रलय और निर्माण दोनों पलते हैं’’ अर्थात् हम सर्जक हैं। हमारे पास करोड़ों की संख्या में कच्ची मिट्टी है निर्माण हमारे हाथ है किन्तु एक सफल सर्जक वही हो सकता है जिसके कर्म, सद्भावों व सद्विचारों से प्रेरित हों अन्यथा उच्च ज्ञान भी विध्वंशक सिद्ध हो सकता है। हिन्दी के ख्यात गीतकार तारा प्रकाश जोशी ने सृजन व सृजनकर्ता के संबंध को अपने गीत में कुछ ऐसे ही भावों के साथ व्यक्त किया है -
’’प्राणों में यदि पाहुन हो तो, नयन बिना भी दर्शन होंगे।
माटी चाक, सूत का लीरा, हर कुम्हार का अलग बतीरा।
कोई गढ़े, मूर्ति राणा की, कोई दर्द दीवानी मीरा।
विक्रय के यदि लोभ न हों तो, हाथ बिना भी सर्जन होंगे।’’
अतः शिक्षक, शिक्षार्थी व शिक्षण संस्थानों में सिर्फ आजीविका पूर्ति हेतु ही यह संबंध त्रय संचालित न हो अपितु ज्ञान व सद्कर्मों से प्रेरित यह मानवजाति के ढांचे को जीवंत बनाए रखने का भी एक प्रयास हो क्योंकि आजीविका की पूर्ति तो स्वतः ही सम्भव हो सकेगी जब बीज वपन पर ध्यान दिया जाएगा।

       ~  डॉ. शीताभ शर्मा
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग
               जयपुर