हिन्दी काव्य कोश~ सम्बंधों में अपनापन हो



सम्बन्धों में अपनापन हो तो , 
होता नहीं दिखावा है।
सम्बन्ध मुखौटे हों यदि तो,
होता ही पछतावा है ।

सम्बन्ध चरण और धरती का।
सम्बन्ध चाल और प्रगति का।
संबंध सांस और धड़कन का।
संबंध कर्म और नियति का।
इस भाँति यदि हो अपनापन,
तो सम्बन्धों की गरिमा है।
अन्यथा भीड़ सम्बन्धों की
भूल भुलैया एक छलावा है।

सम्बन्ध सूर्य और धरती का।
सम्बन्ध धरा रजनीकर का ।
ऊर्जा लेते धरती और चन्द्र,
आभार न करते दिनकर का।
अपनेपन से ये जुड़े हुए,
इनकी अपनी भी महिमा है।
गुरुता लघुता सब गौण यहाँ,
यह सम्बन्धों का बढ़ावा है।

वात्सल्य लुटाता पिता सदा,
मां बच्चों को देती ममता।
भ्राता लक्ष्मण और भरत हुए,
नारी की गरिमा माँ सीता।
इन सम्बन्धों का अपनापन,
अब गौण और मृतप्राय हुआ।
पितु मात रहें वृद्धाश्रम में,
बच्चों से नहीं बुलावा है।

सम्बन्धों में अपनापन हो तो
होता नहीं दिखावा है ।।

       ~रमेश बोहरा
         जोधपुर
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जीवन हो उस अमरबेल-सा,
सुमन-सरीखा सुंदर मन हो।
सुगंध से महके घर-आंगन,
सम्बंधों में अपनापन हो ॥

मान और सम्मान बसे यहाँ ,
आदर-भाव सभी का सम हो॥
मधु-सी हो मीठी वाणी और ,
भावों से हर जन निश्छल हो।
सुगंध से महके घर-आंगन,
सम्बंधों में अपनापन हो ॥

शर्म-हया का गहना पहने ,
नारी से ही हर उत्सव हो ।
फलीभूत हो भाव समर्पण,
जीवन-पथ की राह सुगम हो।
सुगंध से महके घर-आंगन,
सम्बंधों में अपनापन हो ॥

संस्कार की कलियाँ महके,
प्रेम-भाव से सिंचित मन हो।
किलकारी की गूंज उठे तो,
लगे मनोहर घर उपवन हो।
सुगंध से महके घर-आंगन,
सम्बंधों में अपनापन हो ॥

अग्रज,अनुज,सहोदरा संग,
स्नेहिल  अटूट-बंधन  हो ।
दादा-दादी , बुआ अरु चाचा, 
अनुपम धन जैसे परिजन हो,
सुगंध से महके घर-आंगन,
सम्बंधों में अपनापन हो ॥


             ~ अनुपमा 'अनुभवी'
                    गाजियाबाद
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व्यभिचार जले सुविचार उगे, 
मन तृष्णा का परित्याग करें।
निज राह चलें प्रतिमान बने, 
आचार लिए व्यवहार करें।।

सम्बन्धों में अनुबंध बने,  
वाणी से सुरभित स्वर निकले।
हर नाता अपना अपनों से,
अपनों के जीवन साथ चलें।।

प्रेम सरिस की धार बहे जब, 
मन से मन के तार जुड़े हों।
जीवन के सुख-दुख में अपने, 
द्वेष भाव तज राग सजे हों।।

सम्बन्ध बने परिवार सजे, 
बनता समाज संबंधों से।
अनुशासन मर्यादा पलती, 
कुछ सामाजिक प्रतिबंधों से।।

सम्बन्ध वही गहरे होते, 
जो हृदय बीच स्पंदन कर दें। 
दिखे कहीं विक्षोभ अगर तो,
मिल उनका भी क्रंदन हर लें।।

होते प्रगाढ़ सम्बन्ध वहाँ,  
निस्वार्थ समर्पण भाव जहाँ।
है क्षमाशील परिवेश जहाँ, 
हो कभी नहीं बिखराव  वहाँ।।

सद्भाव रहे समभाव रहे, 
उर प्रीति पगे निज अपनों की।
विघटन का प्रादुर्भाव नहीं, 
समदृष्टि रहे सब नयनों की।।

गठबंधन हो संवर्द्धन हो, 
अपनों की चाह समर्पण हो।
आत्म सहित विश्वास बढ़े ,
तब सम्बन्धों में अपनापन हो।।

      ~डॉ रंजना सिंह
      आज़मगढ़, उ प्र
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प्रेम कीअविरल सरिता बहे,
नव भावों का सृजन हो ।        
द्वेष,ईर्ष्या ना हो किंचित, 
संबंधों में अपनापन हो।

संवेदना के पुष्पों से गूँथे हम,
संबंधों का सुंदर हार ।
सद्गुणों की प्रशंसा मध्य,
दोष भी हो सहज स्वीकार।      
 कलुषित भावना तिरोहित हो,
मन बुद्धि हृदय पावन हो। 
द्वेष ईर्ष्या ना हो किंचित,
संबंधों में अपनापन हो। 

संबंधों की नींव सदैव, 
प्रेम-त्याग-अटूट विश्वास।
संबंधों की जीवंतता के द्योतक,
नित  विनोद, हास-परिहास ।
कुटुंब साजे तीर्थ धाम सम,
ज्यों कान्हा का वृंदावन हो। 
द्वेष, ईर्ष्या ना हो किंचित,
संबंधों में अपनापन हो।।

त्याग रूपी बीज को 
स्नेह की निरंतर खाद मिले।
संबंध वृक्ष लहलहाए तभी,
परस्पर जब संवाद मिले।
 सानिध्य पाकर प्रियजनों का, 
रिक्तता का समापन हो।
द्वेष ईर्ष्या ना हो किंचित ,
संबंधों में अपनापन हो।।

सहयोग और संबल के निर्झर से,
 प्रेम रस का प्रवाह  हो।
सम दृष्टि,सम विचार संग ,
कर्तव्यों का उचित निर्वाह हो। 
स्वतंत्रता का हो परिरक्षण,
ना कोई भी बंधन हो। 
द्वेष, ईर्ष्या ना हो किंचित, 
संबंधों में अपनापन हो।।

                   ~सन्जू श्रृंगी
                   कोटा, राजस्थान
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रक्तसम्बन्ध हो या संबंध सभी में,
 भावनाओं का बंधन हो।
नयन-नीर सा, जलधि-तीर सा,
 प्रेम-भाव का अर्पण हो।
मन तू वही ठहर जाना जहाँ, 
श्रद्धा-स्नेह गठबंधन हो।
स्वार्थमुक्त हो प्रेम जहाँ, 
संबंधों में अपनापन हो।।

जहाँ विदुर सा साग मिले, 
शबरी सा बेर का अर्पण हो।
वाणी से सुधारस बरसे, 
भक्ति में, पूर्ण समर्पण हो।
मन तू वहीं विचर लेना, 
जहाँ सेवा-भाव से अर्पण हो।
स्वार्थमुक्त हो प्रेम जहाँ, 
संबंधों में अपनापन हो।।

ईर्ष्या-द्वेष न लेशमात्र हो, 
जीवंतता का स्पंदन हो।
नित्य निरंतर क्षरित संबंध में, 
भावों का पूर्ण समर्पण हो।
नेह नीर में नहा निरंतर, 
नित्य नवल जल अर्पण हो।
कंटक पूर्ण सूक्ष्म जीवन में, 
कोमलता का दर्पण हो।
मन तू वहीं  सँवर जाना जहाँ,
 स्नेह-पुष्प का अर्पण हो।
स्वार्थमुक्त हो प्रेम जहाँ,
 संबंधों में अपनापन हो।।
राम-लखन सम भ्रात प्रेम हो, 
सीता सम बहु प्यारी हो।
हनुमत सा जहाँ भक्त सखा हो,
माँ कौशिल्या सम नारी हो ।
मन तू वहीं बंध जाना, 
जहाँ मातु-पिता गुरु वंदन हो।
स्वार्थ मुक्त हो प्रेम जहाँ, 
संबंधों में अपनापन हो।।

    ~लक्ष्मी कुमारी 
         बिहार