राजा धनबल से पूजित है, विद्वान् पूज्य प्रज्ञाबल से। ।१।
हो बाहुबली श्रमशक्ति पूज्य, पर वही पराजित धनबल से। ।२।
वह क्यों है पात्र उपेक्षा का, ज्यों उसका कोई काम नहीं। ।३।
जो शोभा वृद्धि करे जग की, फिर भी उसका ही नाम नहीं।। ।४।
वह चरण धरा पर धरता है, सर - कूप - बावड़ी बनते हैं। ।५।
वह हाथ धरा पर रखता है, सब खेत सुनहरे होते हैं। ।६।
संतोषी होता देख - देख, उसके श्रम का कुछ दाम नहीं। ।७।
पर हा! दुर्भाग्य यही उसका, फिर भी उसका ही नाम नहीं।। ।८।
वह दृष्टि उठाता है ऊपर, अट्टालिकाएंँ नभ छूती हैं। ।९।
उसकी भुजाओं की शक्ति से, राहें पर्वत से निकलती हैं। ।१0।
उसकी साकार कल्पना में, क्यों उसका कोई धाम नहीं। ।११।
श्रम तो सस्ता बिकता उसका, फिर भी उसका ही नाम नहीं।। ।१२।
वह सबके हित का आकांक्षी, निष्कपट कर्म वह करता है। ।१३।
नहीं रखता मन में बैर भाव, निश्छलता से वह जीता है। ।१४।
वह स्वर्णिम स्वप्नों का दृष्टा, उन स्वप्नों पर क्यों चाम नहीं। ।१५।
है उसका श्रम तो हीन - तुच्छ, फिर भी उसका ही नाम नहीं।। ।१६।
यह उच्च - निम्न का वर्ग भेद, सुख - दुख उपजे हैं इस कारण। ।१७।
स्वामी व दास का भाव यहाँ, शोषक - शोषित के मध्य है रण। ।१८।
संतुलन नहीं क्यों वसुधा पर, श्रम - साधक को विश्राम नहीं। ।१९।
साधना श्रमिक की है अमोल, फिर भी उसका ही नाम नहीं।। ।२०।
~"नीलम कुलश्रेष्ठ"
"गुना"
'मध्य प्रदेश'
हमसे जुड़ें