प्रतियोगिता से संबंधित नियम व शर्तें
रचना विषय - ' बचपन '
प्रतियोगिता में प्रतिभाग करने की प्रक्रिया
♻️ रचना विषय प्रत्येक सोमवार सुबह पत्रिका के App पर प्रकाशित किया जायेगा।
♻️ रचनाकार को अपनी रचनाएँ App में दिए गए प्रतियोगिता विषय के कॉमेंट में लिखना होगा।
♻️ रचनाकार कॉमेंट में रचना पोस्ट करते समय रचना में नीचे अपना नाम जिला व प्रदेश अवश्य लिखें अन्यथा रचना अस्वीकृत होगी।
♻️ रचनाएँ 12-16 पंक्तियों में अपनी रचना पूर्ण करें।
♻️ रचना में हिन्दी भाषा के शब्दों के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाएगी अतः हिंदी के शब्द का ही प्रयोग करें।
♻️ रचना के उत्कृष्ट भाव होने पर कुछ अन्य भाषा के सामान्य शब्दों की छूट या उसे हिन्दी भाषा के शब्दों से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
♻️ रचना के उत्कृष्ट होने पर रचना के चयन हेतु उसमें कुछ शब्दों अथवा पंक्तियों के परिवर्तित कर उसे प्रकाशित करने का अधिकार निर्णायक समिति के पास सुरक्षित है |
♻️ यदि कोई रचनाकार हिन्दी से पृथक् भाषा के शब्दों का प्रयोग अधिक करता है तो उसकी रचना को निर्णय से हटा दिया जायेगा तथा प्रयास किया जायेगा कि उसे सुझाव दिया जाए।
♻️ रचनाएँ भावाश्रित होने के साथ ही व्याकरण तथा साहित्य के दोषों से मुक्त हों जिससे उसके चयन की सर्वाधिक संभावना हो।
♻️ साप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता के आयोजन का उद्देश्य हिन्दी भाषा के प्रति जागृत करना है अतः प्रतियोगिता में सर्वाधिक ध्यान भाव के साथ हिन्दी शब्दों के सर्वाधिक प्रयोग पर है।
♻️ किसी भी शब्द की पुनरावृत्ति किसी भी लेखन में त्रुटि मानी जाती है अतः किसी शब्द की पुनरावृत्ति से बचने हुए हिन्दी भाषा के अलग - अलग उपयुक्त शब्दों का प्रयोग करें।
♻️ रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार रात्रि १० बजे तक ही स्वीकार होंगी।
♻️ साप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता का परिणाम रविवार को पत्रिका की वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया जायेगा।
♻️ परिणाम प्रकाशित होने के बाद चुने गए रचनाकार को अपना पासपोर्ट साइज़ फोटो पत्रिका के आधिकारिक व्हाट्सएप +91 6392263716 पर भेज देना है।
♻️ पासपोर्ट साइज़ फोटो प्रशस्ति -पत्र पर प्रयोग करने हेतु मंगाया जाता है, यदि चुने गए रचनाकार द्वारा रविवार शाम तक फोटो नहीं भेजा गया तो बिना फोटो के ही प्रशस्ति -पत्र जारी कर दिया जायेगा।
♻️ प्रशस्ति -पत्र पत्रिका के फेसबुक पेज, फेसबुक ग्रुप या इंस्टाग्राम आदि से प्राप्त किया जा सकता है जिसकी लिंक वेबसाइट पर उपलब्ध है ।
♻️ किसी आपातकालीन स्थिति में प्रशस्ति -पत्र को पत्रिका के व्हाट्सएप से भी प्राप्त किया जा सकता है।
♻️ प्रशस्ति -पत्र ई-फॉर्मेट में जारी किया जायेगा तथा जो रचनाकार चाहें इसकी हार्डकॉपी निःशुल्क प्रयागराज से प्राप्त कर सकते हैं।
♻️ प्रशस्ति -पत्र अपने डाक पते पर मंगाने हेतु रचनाकार को कुछ आवश्यक शुल्क देने होंगे, जिससे उनके पते पर इसे भेज दिया जा सके।
♦️ रचना कैसे करें?
1️⃣ रचना करने के लिए सबसे पहले आप हिन्दी काव्य कोश के मोबाइल App पर आयेंगे जहाँ पर प्रत्येक सोमवार को विषय पोस्ट किया जाता है।
2️⃣पत्रिका के App पर दिए गए विषय पोस्ट पर क्लिक कर उसके नीचे दिए गए कॉमेंट बॉक्स में अपनी रचना लिखकर Submit कर देंगे।
3️⃣ रचनाकारों को हिन्दी काव्य कोश के फेसबुक ग्रुप में अपनी रचनाएँ अवश्य भेजनी चाहिए परंतु यह ऐच्छिक है।
4️⃣ रचना कॉमेंट में सबमिट होने के बाद उसे वही रचनाकार edit नहीं किया जाना है।
5️⃣ रचनाकारों को सुझाव दिया जाता है कि वे एक बार कॉमेंट करने से पहले Log in कर लें जिससे नाम के साथ उनका कॉमेंट प्रदर्शित हो।
किसी प्रकार की समस्या होने पर पत्रिका के व्हाट्सएप नंबर +91 6392263716 पर समस्या साझा करें।
6️⃣ चुनी गई रचना का लिंक प्रत्येक विषय पोस्ट के नीचे जोड़ दिया जायेगा जिसपर क्लिक करके उस विषय की चुनी गई रचनाओं को बाद में पढ़ा जा सकेगा।
7️⃣ रचनाओं का चुनाव निर्णायक मंडल द्वारा निष्पक्ष रूप से किया जाता है।। अतः कोई भी रचनाकार निर्णय पर प्रश्न नहीं उठा सकता है।।
यदि कोई रचनाकार चुनी गई रचनाओं पर अभद्र टिप्पणी करता है या चुनाव प्रक्रिया का विरोध करता है तो उसे हिन्दी काव्य कोश से बाहर कर दिया जायेगा।।
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प्रतियोगिता का परिणाम प्रत्येक सप्ताह रविवार को घोषित किया जाएगा।
जिसमें निर्णायक समिति द्वारा समान रूप से चुनी गई रचना को उत्कृष्ट घोषित किया जायेगा। जिसे हिन्दी काव्य कोश के फेसबुक पेज तथा ग्रुप्स में भेजा जायेगा तथा उनकी रचना को पत्रिका की वेबसाट www.hindikavykosh.in पर प्रकाशित किया जायेगा।।
💯 रचना चोरी की अनेकों शिकायतें हिन्दी काव्य कोश की जाँच समिति को प्राप्त हो रही हैं। हिन्दी काव्य कोश आपको यह सूचित करता है कि यदि आपकी रचना में किसी भी रचनाकार की कोई भी पंक्तियाँ पाई गईं तो आपकी रचना का चुनाव होने के बाद भी आपको सदैव के लिए आपकी रचना को हटा कर सार्वजनिक रूप से बाहर कर दिया जायेगा।।
सुझाव :
🗝️ रचनाकारों को अपनी रचना नीचे कॉमेंट में पेस्ट करने के बाद पत्रिका परिवार के फ़ेसबुक ग्रुप में ऊपर दी गई विषय चित्र के साथ रचना पोस्ट करना चाहिए जिससे उसे अधिक साहित्य प्रेमियों तक पहुँचाया जा सके |
फ़ेसबुक ग्रुप की लिंक पर क्लिक कर पोस्ट करें
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🗝️ रचनाओं का चुनाव Whatsapp पर नहीं किया जायेगा | अतः रचनाकारों से निवेदन है कृपया प्रतियोगिता विषय की रचनायें Whatsapp पर न भेजें | प्रतियोगिता से बाहर की रचनायें ( कहानी,कविता,लेख ) आदि के प्रकाशन हेतु उन्हें Whatsapp पर भेजी जा सकती हैं |
47 टिप्पणियाँ
बगीचा ए अत्फाल - बचपन
जवाब देंहटाएंबगीचा ए अत्फाल अब कहाँ नसीब मेरे यार
जवानी से ले चल फिर मुझे बचपन मे मेरे यार
(बगीचा ए अत्फाल _बच्चों के खेलने का जगह)
खुशियां सारे गम में बदले भार बहुत है जीने में
पेशानी पर बल पड़ता है इस उम्र में मेरे यार
इसका सोचो उसका सोचो चाहे जिसका सोचो
निशानी में तोहमत मिल ही जाता है मेरे यार
उल्फ़ते इश्क में फसा जो रौशन फिर अंधेरा क्या
कहानी उलझनों की फिर बन ही जाती है मेरे यार
इल्तिजा है बस खुदा से कोई गम में थोड़ा रहम हो
जवानी में बचपन सी हसीं मिलता कहाँ मेरे यार
बगीचा ए अत्फाल अब कहाँ नसीब मेरे यार
जवानी से ले चल फिर मुझे बचपन मे मेरे यार
विश्व बन्धु रौशन
बांका बिहार
बचपन
जवाब देंहटाएंबचपन में हम मिलकर देखो,
शैतानी कितनी करते थे।
डाल पकड़ कर पेड़ों की,
दरिया में कूदा करते थे।
कागज की हम पतंग बनाकर,
रोज उड़ाते थे दिनभर।
इसी तरह दिन कटते अपने,
चैन नहीं था हमको पलभर।
दादी नानी पास बिठा कर,
नई कहानी कहती हमसे।
राजा रानी और परियों के,
अकसर होते थे किस्से।
आँख मिचोली गुल्ली डंडा,
खेल हमारे होते थे।
हुई लड़ाई बीच कभी तो,
नहीं किसी से कहते थे।
आपस में मिलजुलकर रहना,
बचपन से ही सीखा हमने।
भेदभाव की कटु भावना,
बीच ना होती थी अपने।
कवि विनय मोहन शर्मा
अलवर, राजस्थान
#हिन्दी_काव्य_कोश
जवाब देंहटाएं#साप्ताहिक_कविता_लेखन_प्रतियोगिता
विधा: कविता, भाषा: हिन्दी
शीर्षक: बचपन
बचपन में भी क्या दिन थे, जब हम चिंता के बिन थे।
मोहल्लों में प्रगाढ़ प्रेम था, घृणा के लिए डस्टबिन थे।
गर्मी की छुट्टियों की प्रतिक्षा, उसकी न होगी समीक्षा।
बड़ों को आदर, छोटों को प्रेम, ऐसी थी शिक्षा-दीक्षा।
बागीचे से आम तोड़ना, माली का मीलों पीछे दौड़ना।
अच्छे आम पास में रखना, खराब आम वहीं छोड़ना।
दादी-नानी की कहानी, साथ सुनती हर एक जवानी।
बहुत समझ में आती थीं, बाक़ी अनसुनी-अनजानी।
दिनभर बातों का हल्ला, बातूनी था अपना मोहल्ला।
मिट्टी से सने कपड़े, हाथ में रहता क्रिकेट का बल्ला।
अब तो केवल बात करेंगे, सब दिन और रात करेंगे।
जो बीता उसे कौन थामे, याद वह क्षण साथ करेंगे।
इंजी. हिमांशु बडोनी "दयानिधि"
जिला: पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखण्ड)
घोषणा: प्रस्तुत काव्य रचना पूर्णतः मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना है।
नपफबबभभभफनप
जवाब देंहटाएंमंच को सादर नमन,
जवाब देंहटाएंसाप्ताहिक प्रतियोगिता
विषय : बचपन
दिनांक :३१/७/२०२३
#tmkosh
#हिन्दी_काव्य_कोश
ऐसी एक दौलत जिसकी न कोई भरपाई,
जिसमें लगा न कोई आना और न कोई पाई।
जहाँ मेरे बचपन की कली कली मुस्काई,
वो कहानियों वाला साम्राज्य जो नानी-दादी ने सुनाई।
कोई तो लोटा दो मेरी वो दौलत जो मैंने थी कमाई।
वो मस्तियाँ, वो नादानियाँ।
वो परियों वाली कहानियाँ।
वो अठखेलियाँ,वो थपकियाँ,
वो लोरियाँ जो माँ ने सुनाई।
कोई तो लोटा दो मेरी वो दौलत जो मैंने थी कमाई ।
वो मिट्टी का चूल्हा,
वो जुगाड़ वाला दूल्हा।
वो गुड़ियों की शादी,
वो कुश्ती के बाद की धुनाई।
कोई तो लोटा दो मेरी वो दौलत जो मैंने थी कमाई।
वो सर्दीयों में मुँह के धुएँ वाला खेल,
वो गर्मियों की रातों की रेलमपेल।
वो बारिशों का पानी,
जिसमें कश्तियाँ थी बहाई।
कोई तो लोटा दो मेरी वो दौलत जो मैंने थी कमाई ।
वो लड़ाई वो जगड़े,
जो दूध पी के बने थे तगड़े।
वो स्कूलों के लफड़े,
वो मास्टरजी की कान खिंचाई।
कोई तो लोटा दो मेरी वो दौलत जो मैंने थी कमाई ।
वो जीवन का आनंद ,
वो उमंग, वो उत्साह।
आज कहीं खो गया,
मैंने वो बातें क्यूँ आज बिसराई।
कोई तो लोटा दो मेरी वो दौलत जो मेने थी कमाई।
सच्ची दौलत तो वो ही थी,
आज जिम्मेदारी का भार है।
सबके लिए करते करते,
मैंने अपनी खुशियाँ गँवाई।
कोई तो लोटा दो मेरी वो दौलत जो मैंने थी कमाई।
©️दिल धाकड़
नाम: दिलखुश धाकड़
शहर: इंदौर
( मध्य प्रदेश)
स्वरचित मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित
कविता। "बचपन"
जवाब देंहटाएंसतीश "बब्बा"
खोता जा रहा है बचपन,
बचपन में ही आया पचपन,
खिलौने को नहीं रोता बचपन,
मोबाइल में डूबा बचपन!
वह ओरिया का पानी,
कागज की नाव अरु नानी,
भिगोया नहीं बारिश का पानी,
मोबाइल में दिन बीत जानी!
धूलधूसरित, हंसता बचपन,
अम्मा की छड़ी संग दौड़ता बचपन,
बापू की बाहों में झूलता बचपन,
अब नजर नहीं आता वो बचपन!
मोबाइल पर उँगली चलती,
नन्हीं - नन्हीं बाँहें न थकती,
बादलों के संग नहीं नाचता बचपन,
खोता जाता है अब बचपन!
सतीश "बब्बा"
मैं प्रमाणित करता हूँ कि निम्नलिखित रचना मेरी अपनी लिखी हुई मौलिक एवं अप्रकाशित है मैने इसे अन्यत्र प्रकाशनार्थ नहीं भेजा है।
रचना - कविता। ( "बचपन" )
तारीख - 31 - 07 - 2023
सतीश "बब्बा"
हस्ताक्षर
पता - सतीश चन्द्र मिश्र, ग्राम + पोस्टाफिस = कोबरा, जिला - चित्रकूट, उत्तर - प्रदेश, पिनकोड - 210208.
मोबाइल - 9451048508, 9369255051.
ई मेल - babbasateesh@gmail.com
"बच्चपन" में
जवाब देंहटाएंनानी माँ से परियों की कहानियाँ
सुनते वक़्त मन में
एक तस्वीर की कल्पना
कर लेता था मैं
उस तस्वीर में कोई धुंधला-धुंधला
नज़र तो आता था
पर ठीक से कुछ साफ़ साफ़
दिखाई नहीं देता था ।
इतने वर्षों बाद जब तुम
मेरे सम्मुख आई
तब अनुभव हुआ मुझे
कहीं न कहीं
मेरी वही कल्पना हो तुम,
जिसे मैं
उन तस्वीरों में धुंधलाये
हुए देखता था ।
21st दिसंबर, 2020
~ अंकित श्रीवास्तव , जहानाबाद (बिहार)
#हिंदीकाव्यकोश
जवाब देंहटाएं#साप्ताहिकप्रतियोगिता
#tmkosh
शीर्षक- बचपन
स्वरचित मौलिक रचना
**********************
वो बचपन की यादें वो बचपन की बातें ,
वो मस्ती भरे दिन वो मस्ती भरे पल
वो हॅंसना वो रोना वो हर पल फुदकना
वो,गाना बजाना, रूठना और मनाना ।
वो छुट्टी के दिन और स्कूल की पढ़ाई
शरारत पर होती थी जब वो पिटाई
तो गुस्से भरी उस नजर का उठाना ,
यूँ पल भर में फिर से वो उधम मचाना ,
परीक्षा के दिनों में वो घबराकर पढ़ना
पढ़ते-पढ़ते वो गर्दन का झटकना,
वो आंखों से नींद की लड़ाई का होना
वो सोना वो जगना, वो जगना वो सोना।
आतीं हैं याद जब भी वो यादें
तो होठों पर छा जाती है इक खुशी सी
वो दुनिया थी जैसी वो अब क्यों नहीं है !!
क्यों जीवन में फिर से वो बचपन नहीं है। ??!!
✍️वन्दना चौधरी🇮🇳
दिल्ली
#बचपन
जवाब देंहटाएंसीढ़ी पर चढ़कर
ढूंढ़ता हूँ
बादलों में छुपे चाँद को
पकड़ना चाहता हूँ चंदा मामा को
बचपन में दिलों दिमाग में समाया था।
लोरियों, कहानियों में रचा बसा था
माँ से पूछा कि चंदा मामा
अपने घर कब आएंगे?
ये तो बस तारों के संग ही रहते
ये स्कूल भी जाते या नहीं।
अमावस्या को इनके
स्कूल की छुट्टी होती होगी
तभी तो ये दिखते नहीं
माँ ने आज खीर बनाई
मामा को खीर खाने बुलाने के लिए
सीढ़ियों पर चढ़ कर देखा
मामा का घर तो बहुत दूर है।
माँ सच कहती थी
चंदा मामा दूर के।
मैं चन्द्रयान -3 में
अब जा ही रहा हूँ
तब उन्हें माँ के हाथों की बनी
खीर का न्योता अवश्य दूंगा
जो सपना बचपन मे मैने देखा था।
संजय वर्मा 'दृष्टि'
मनावर जिला धार मप्र
नमन मंच
जवाब देंहटाएं#हिंदी_काव्य-कोश
#tmkosh
विषय- "बचपन"
विधा- कविता
दिनांक- 31/07/2023
ढूँढ़ लाओ कहीं से बचपन मेरा।
बचपन में देखा हर सपन मेरा।।
भुला दूँ जवानी की मैं कहानी,
वो सुबह की लाली ये शाम सुहानी।
मुझे चाहिए बस कहानी सुनाती,
मेवे खिलाती वो बुढ़िया सी नानी।।
पोपले मुँह से वो हँसती-खिलखिलाती,
प्यार की गंगा सबके दिलों में बहाती।
उसने सुनी अपनी नानी से जो,
याद करके बताती वो बातें पुरानी।।
भुला दूँ जवानी की मैं कहानी,
वो सुबह की लाली, ये शाम सुहानी।
मेरा बचपन मुझे जो मिल जाये तो,
बुढ़िया नानी को जीवन ये अर्पण मेरा।।
ढूँढ़ लाओ कहीं से बचपन मेरा।
ढूँढ़ लाओ कहीं से बचपन मेरा।
बचपन में देखा हर सपन मेरा।।
अनामिका सत्यांशु
लखनऊ
उत्तर प्रदेश
जवाब देंहटाएंवो गुजरा हुआ बचपन,
अगर जो फिर से आ जाए।
मैं जी लूं बीते लम्हों को ,
कसक सारी वो मिट जाए।
वही फिर मेला में घूमू,
पिता के कांधे पे चढकर।
मचल कर मांग लूं फिर से,
खिलौने एक से एक बढ़कर।
वही फिर से पुरानी पाठशाला जाऊं,
बनाऊं फिर वही साथी।
जिए थे साथ जिनके हम,
खेल में बनके घोड़े और हांथी।
अचानक डर के पढ़ाई से,
हुआ मन की बड़ा बनने को।
सुनहरे बाल बचपन से
किनारे खुद को करने को।
वो बचपन छूटा फिर हमसे,
नजारे युवापन के जब आए।
गए वो छूट सारे दोस्त,
मासूमियत से जो हमने बनाए।
अखरता आज अब दिन है,
की हम किस दौर में आए।
वो सारा प्यार ,नादानियां ,
उसी बचपन में छोड़ आए।
वो गुजरा हुआ बचपन ,
अगर जो फिर से आ जाए।
मैं जी लूं बीते लम्हों को,
कसक सारी वो मिट जाए।
सरकार अमन .....
शीर्षक - दंड !
जवाब देंहटाएंविद्या- कहानी
बचपन में मेरे दादा जी एक कहानी सुनाया करते थे, वही कहानी आज मैं आपको सुना रहा हू।
पुराने समय की बात है। एक छोटे से गांव में एक मुखिया रमेश प्रसाद रहते थे। वह हमेशा अपने गांव के लोगों की मदद करने में तत्पर रहते थे और उन्हें एक अच्छा मुखिया के रूप में सम्मानित किया जाता था। रमेश प्रसाद जी अपने गांव के विकास के लिए हमेशा सक्रिय और महिलाओं का सम्मान करता थे।
एक दिन, एक बड़े शहर से एक युवक आया और गांव के लोगों के बीच अपने आधुनिक सोच और अनुभव का दिखावा करने लगा। लेकिन उसके दिखावे के पीछे एक अधर्मी इच्छा थी - नारियों के प्रति उसकी सोच में अहंकार था। वह अनेक मौकों पर गांव की महिलाओं को अपमानित करता, उन्हें घृणा दिखाता और हिंसा के प्रति उत्तेजित करता।
इसे देखकर रमेश प्रसाद जी बहुत दुखी हुये और उसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन युवक के मन में इतनी नफरत और अहंकार भरा था कि वह नहीं माना। युवक के अनुयायी भी उसे समझाने के वजाय उससे और भी हिंसा कराने की कोशिश करते, लेकिन वह करे भी तो क्या करे,
वह अपने नेता की अनुकरण करते थे।
एक दिन, एक भयानक घटना हुई। युवक ने एक महिला को बिना किसी कारण के पीटना शुरू कर दिया। वहां उपस्थित लोगों ने रमेश प्रसाद की से मदद मांगी, लेकिन रमेश प्रसाद जी ने इस दृश्य को देखकर नाराजगी में कुछ बदलने का समय समझा।
रमेश प्रसाद जी अपने आध्यात्मिक गुरु जी से मिलने गए और गुरु जी को साष्टांगदंडवत प्रणाम कर,उन्हें सब कुछ बताया। उनके गुरु जी ने उन्हें समझाया कि हिंसा से कोई फायदा नहीं है, बल्कि यह तो मानवता को नुकसान पहुंचाता है। महिलाओं का सम्मान करना और उन्हें सशक्त बनाना हमारा कर्तव्य है। लेकिन सब देखते हुऐ भी शांत रहना कायरता है, मै अपने कुछ शिष्यों को आपके साथ भेजता हु। आप इस समस्या का निवारण करो।
रमेश प्रसाद जी ने ने गुरु की बात मानी और युवक के पास गये और उससे भीख मांगने लगे की बेटा ऐसा मत करो यह हमारी परम्परा नहीं है , हमे यह शोभा नही देता की हम किसी महिला को मारे- पीते, मानसिक प्रताड़ना दे।
हम उनके वंशज है, जिन्होंने नारी को देवी माना है,। हम नारी को पूजा करते है।
इतना सुनते ही युवक, चिल्लाते हुये! तुम होते कौन हो?
मै कुछ भी करू , मेरी मर्जी है। तुम मुझे रोक नही सकते हो। रमेश प्रसाद जी ने फिर भी युवक से बोला , बेटा मैं आपको ये बताने आया हु की किसी भी नारी को आप सताओ मत, यह अच्छी बात नही है पाप है। इतना सुनते ही
युवक आखें लाल करते हुऐ बोला तू होता कौन है , ये सब बताने वाला कहते हुऐ उन्हें धक्का दे देता है। उनके सर से खून निकलने लागत है।
रमेश प्रसाद जी को जमीन में गिरा हुआ देखकर, गुरु जी के शिष्यों ने युवक की तरफ़ पलक झपकते बड़े और युवक को मरने लगे , नीचे गिरे हुऐ रमेश प्रसाद जी के उड़ते - उठते
युवक जमीन मे पड़ा हुआ था, हाथ जोड़े ।
रमेश प्रसाद जी शिष्यो से ये तुमने क्या कर दिया, ऐसा नही करना चाहिए था, चलो गुरुजी के पास तुम्हारी शिकायत करता हू।
सब लोग शाम गुरुजी के पास गये , रमेश प्रसाद जी गुरुजी को प्रणाम करते हुऐ , सभी बाते बताई, गुरुजी रमेश प्रसाद जी से मैं जानता था, ऐसा होगा इसलिए मैंने शिष्यों से कहा था , सावधान रहना।
घृणित कार्य करने वाले को समझा पाना असम्भव है उसे दंड देना ही पड़ता है ।
कई महीनों बाद देखा गया कि उस युवक के दिल में बदलाव हुआ और उसने अपने गलत रास्ते को सुधारा।
-अश्विनी कुमार तिवारी ( अश्विनी कुमार)
पता- अमिलई, सीधी ( मध्य प्रदेश)
Instagram I'd- @_ashwani_kumar_04
शीर्षक :- बचपन
जवाब देंहटाएंकुछ अल्हड़ बेबाक सा था बचपन।
कुछ बेपरवाह,बेखौफ़ सा था बचपन।।
न था होश ज़माने के नियमों का।
न था डर अपनों के गुस्से का।।
न थी तरीके से कपड़े पहनने की चिंता।
न थी बिखरे बालो को सवारने का झंझट।।
नंगे पैर ही नापे जाते थे पूरे गली - मोहल्ले।
न गर्मी की झूलसन न थी कोई बीमारी की चिंता।।
बारिश में भरे गड्ढों में,बेशर्म होकर कूद जाना।
घर पहुंचकर माँ की मार खाना।।
दिनभर खेलते रहने पर भी भूख न लगना।
नुक्कड़ की पकोड़ी,दो बिस्कुट,मटके के पानी से पेट भर लेना।।
त्योहारों पर नए कपड़ो ओर जूतों की दोस्तों से होड़।
मेलो में झूला - चकरी के लिए पैसो की जुगाड़।।
गर्मी की छुट्टी पर मामा घर जाने की खुशी।
छत पर इक्कठे सभी बच्चो की रात भर चलती मस्ती।।
पढ़ाई से कोशो दूर तक का न कोई नाता।
पढ़ने से जी चुराकर,फिर खेलने भाग जाना।।
कितना प्यारा और न्यारा था बचपन हमारा।
कितना अल्हड़ बेबाक सा था बचपन हमारा।।
स्मृतियों की खिड़की से मैंने,
जवाब देंहटाएंजब भी देखा बचपन को मेरे,
हो गई मगन फिर रोक न पाई,
लगा ही आई उन गलियों के फेरे!
मां से कहानी सुनकर उनके ही हाथों से खाना,
पापा से पैर दबवाते हुए,मीठी नींद में सो जाना!
घरभर की राजदुलारी मैं,आता था बातें मनवाना,
लुका-छिपी के खेल या गुड़ियों का ब्याह रचाना!
अनगिनती यादें बचपन की,कैसे सारी याद करूं?
चाह यही है जी की,बचपन की गलियों में बिचरूं!
अल्हड़ से वो दिन थे प्यारे,चिंतामुक्त आनंद भरे;
अंशों में जी चुकी दोबारा,चाव है जो कभी न मरे!
बच्चों के बच्चों का बचपन,
फिर उनके भी बच्चों का...
चक्र अनवरत यह चलता ही रहे,
जी पाऊं सदा ही बचपन अपना!
स्वरचित मौलिक रचना
द्वारा, सीमा अग्रवाल
गोमतीनगर, लखनऊ
उत्तर प्रदेश
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जवाब देंहटाएं# हिन्दी काव्य कोश # tm kosh
जवाब देंहटाएंहिन्दी साप्ताहिक प्रतियोगिता
बचपन :-
मौलिक रचना -
बचपन की वो बातें
अब बन गई हैं यादें।
माटी सा कोरा
भर गया सकोरा
तारों भरी रातें
गुड़ियों की बारातें
आँखों में भरे सपने
सबको माने अपने
बचपन की वो बातें
अब बन गई हैं यादें।
बहता निश्छल पानी
करनी अपनी मनमानी
स्वच्छंद विहग विचरण
तृषित पल्लवित आचरण
ना करे फिकर ना मनन
मस्त रहे अपनी ही धुन
बचपन की वो बातें
अब बन गई हैं यादें।
पिता को आता देखे
पढ़ने लगते किताबें
जिद पूरी करवाना
तो माँ को है पटाना
रसोई में पकवान हो बने
खाते समय मुँह है बनाने
बचपन की वो बातें
अब बन गई हैं यादें।
मनीषा सिंह जादौन
अध्यापिका
जालोर, राजस्थान
नमन मंच
जवाब देंहटाएं#हिन्दी_काव्य_कोश
#tmkosh
#दिनांक- 1/8/2023
#विषय- बचपन
बजता था नि:स्वर नूपुर उर में,
मधु वैभव लुटाता था बचपन,
वर्षा में विद्यालय से घर को आना,
अपलक राहों को निहारना,
मित्रों के संग स्वप्न मुकुल खिलाना,
तंद्रिल मन,अलसाया जलपूर्ण ग्राम,
अंतस्थल में बसा आम्र तरु,
यह तरु सदैव बचपन को भाया,
लकुटी संग मित्र के कंधे पर सवार,
कच्चे आमों को आलिंगन में लेना,
बचपन को मिले तब असीम शांति,
रत्न प्रसविनी हरित वसुधा,
जिसके नव अंगों पर बचपन मुस्कुराया,
नया क्षितिज खुलता था मन में,
नई आशा लेती थी अंगड़ाई,
हम ही थे अपने भाग्य विधाता,
नहीं था मन में कोई अवसाद,
तरू,पोखर,श्वान,पक्षी सब थे प्रिय,
सुख से विह्वल था हमारा बचपन,
बहुत याद आता है बचपन।
रचनाकार - मनोरमा शर्मा मनु
स्वरचित एवं मौलिक
हैदराबाद
तेलंगाना
साप्ताहिक विषय- बचपन
जवाब देंहटाएंअनजाने में बिन छतरी के भीगा मैं बरसात में।
याद बहुत आये वो दिन बचपन की सौगात में।
लोग कहते बाढ़ आ गई पर बचपन में खेल था।
चप्पल पकड़ पानी में कूदना कितना सुंदर मेल था।
हो रही परेशान अम्मा पानी भरा घर के चहुँ ओर।
बिंदास बचपन उछल रहा एक छोर से दूसरी ओर।
फाड़- फाड़ कॉपी के पन्ने नाव बनाई जाती थी।
दौड़-दौड़ कर मित्रों संग पानी में बहाई जाती थी।
देखते ही इंद्रधनुष मन्नत मांगने लगते थे।
साइकिल एक मिल जाए हाथ जोड़कर कहते थे।
ना सोने की फिक्र ना खाने की चिंता थी।
मौज मस्ती से भरी अपनी सोने की लंका थी।
छलांग लगा पेड़ों पर चढ़कर अमरुद तोड़े जाते थे।
लेकर कागज में नमक बिन धोए खाए जाते थे।
चुपचाप बगीचे में जाकर फूल चुराए जाते थे।
देखे जाने पर माली के पेड़ों में छुप जाते थे।
सोने से बचपन के दिन थे चांदी सी रातें थीं।
अम्मा- बाबूजी के साथ जीवन में कोई कमी ना थी।
मौलिक,अप्रकाशित
डॉ.निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम
साप्ताहिक विषय- बचपन
जवाब देंहटाएं---------------------------------+
मोबाईल के जौबन को बचपन बेच दिया,
मैदान खाली, बल्ला कहाँ हैं तुम भूल गए।।
स्कूल से घर आते ही छत दौड़कर जाते थे,
पतंग बनाना तो दूर, तुम उड़ाना भूल गए।।
इतवार के मुंतजिर हम सोमवार से होते थे,
छुट्टी के दिन भी क्यूँ तुम खेलना भूल गए।।
केशियो घड़ी की चूं चूं से खुश हो जाते थे,
क्यूँकर हालात बने कि तुम हँसना भूल गए।।
कंचे, पिठ्ठू, लंगड़ी टाँग, छुपन छुपाई,
गिल्ली डंडा मजेदार खेल तुम क्यूँ भूल गए।।
हरगिज़ ना मिलेंगी लड़कपन की ये दौलत,
कर्मवीर लूटा चूका, तुम कमाना भूल गए।।
कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)
वह कागज़ की कश्ती वह बारिश का पानी
जवाब देंहटाएंदेखो बचपन के दिन याद आते है नानी||
वह गिल्ली डंडा और आंख मिचोली
कहा है वह दोस्तों की टोली शैतानी
देखो बचपन के दिन याद आते है नानी||
कूदना गिरना फिर संभालना फिर
मस्ती से पेड़ो की चढ़ाई
देखो बचपन के दिन याद आते है नानी||
शालाकी घंटी और मास्टरकी पिटाई
परीक्षा में करते थे जम के पढाई
देखो बचपन के दिन याद आते है नानी||
वह मासूमियत वह नादानियाँ
खो गई अब दादा दादी की कहानियाँ
देखो बचपन के दिन याद आते है नानी||
मौलिक रचना|
हेमिषा शाह
अहमदाबाद , गुजरात
#हिंदी_काव्य_कोश
जवाब देंहटाएं#tmkosh
#विषय बचपन
मुझ पचपन से बोला बचपन
चल खेले खेल पुराने
रिमझिम बादल बरस रहा
कागज की नाव चला ले
चल दादुर के पीछे भागे
टर्र टर्र सा तुतला ले
टिप टिप करते ओले पकड़े
बारिश में आज नहा ले
वर्षा से नव ताल बने हैं
चल छप छपाक करने
अंबर में निकले सतरंगी
इंद्रधनुष को पकड़ने
चल कश्ती के पीछे पीछे
देखें कहां तक जाती है
किसकी पार उतरती हैं
किसकी डूब जाती है
मैं बचपन को जी रहा था
तभी हाथ से प्याली छूटी
फिर से पचपन में लौटा
ज्यों ही स्वप्न से तंद्रा टूटी
मैंने पुकारा लौटो बचपन
मेरा पोता दौड़ा आया
भाव विभोर हो गया मैं
उसमें अपना बचपन पाया
तुरंत कागज की रंग बिरंगी
दे दी उसको नाव बनाकर
उलट पलट कर देखा उसने
तुरंत फेंका उन्हें उठाकर
मोबाइल में लगकर उसने
मुझे किया अनसुना अनदेखा
कि तकनीकी दुनिया में मैंने
अपना बचपन सिसकते देखा
हंस जैन गांधी नगर दिल्ली 31
मैं सोचता हूं पर समझ न पाता,कैसे सबको समझाऊं?
जवाब देंहटाएंअनुभव पर अपने गर्व करूं या,बीते बचपन से इठलाऊं।।
वे दिन भी क्या दिन थे बचपन के,सारी दुनिया अपनी थी।
दिल दरिया गंगा सा निर्मल था,मन उमंग तरंग से सनी थी।
संगी,साथी संग हिलमिल कर,रेत मध्य आशियाना बनाऊं।
अनुभव पर अपने गर्व करूं या,..............।।1।।
गिल्ली डंडा दोल्हा पाती,कंचा कौड़ी हो या चीका कबड्डी।
मेला बाजार नानी दादी संग,चर्खी झूला व धूमा चौकड़ी।।
मनमौजी बादशाह बना मैं,वन बाग गली में उधम मचाऊं।
अनुभव पर अपने गर्व करूं या,..............।।2।।
सर्दी गर्मी बर्षा शिशिर हेमंत बसंत की फ़िकर ना मुझको।
धराम्बर महं एकल दुनिया मेरी,कैसे मैं बतलाऊं तुझको।।
शादी तीज त्योहार के मौके पर,गर्मजोशी से मौज मनाऊं।
अनुभव पर अपने गर्व करूं या,.............।।3।।
शिव राम कृष्ण राधा सीता शारदे मां, मिट्टी के ही बनते थे।
जीवन्त सदृश साक्षात् कमल दृग,देवत्व उसी में रमते थे।।
बचपन में सच देवरुप धर मैं,अपने जग में आनंद मनाऊं।
अनुभव पर अपने गर्व करूं या,..............।।4।।
************++++++*************
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित कविता रचना
रचनाकार- आचार्य कमलेन्द्र नारायण चौबे
मुन्नू खेड़ा,पारा,जनपद-लखनऊ राज्य-उ0प्र0
सम्पर्क सूत्र :- 9682879902
।।सादर नमन हिन्दी काव्य कोश मंच।।
बचपन
जवाब देंहटाएं******
याद हमेशा बचपन आता।
अंतर्मन में रच बस जाता।।
नील गगन में हम उड़ते थे।
दौड़-भाग हरदम करते थे।।
चाहत थी हरदम पाने की।
स्वाद भरी चीजें खाने की।।
खूब खिलौने घर लाने की।
सैर सपाटे पर जाने की।।
बचपन के साथी थे प्यारे।
रहते थे सब संग हमारे।।
जाति-धर्म का बैर नही था।
मन जो कहता वही सही था।।
कर देते थे हम नादानी।
छुपकर करते थे मनमानी।।
मिलजुलकर हम धूम मचाते।
खेलकूद कर जश्न मनाते।।
खाना-पीना मौज उड़ाना।
दुनिया को नहि हमने जाना।।
आनंदित बारिश करती थी।
कागज की नैया चलती थी।।
चिन्ता नहि थी मन में कोई।
नींद कभी नहि हमने खोई।।
करते थे जब हम शैतानी।
डांट हमें पड़ती थी खानी।।
बदला जीवन बदली काया।
नहीं लौटकर बचपन आया।।
काश कही ऐसा हो जाये।
फिर से वापस बचपन आये।।
माता प्रसाद दुबे
मौलिक स्वरचित अप्रकाशित
लखनऊ
#हिन्दी_काव्य_कोश
जवाब देंहटाएं#विषय-बचपन
#दिनांक-02/08/2023
बचपन के स्मृतियों में, सर्वस्व न्योछावर
करते हैं,
जाती-आती प्रति बसंत में, गीत उसी के गाते हैं।
क्या वे सुंदर दिन थे अपने, क्या ही वे अठखेलीं थे,
मान-मनौवल हंसना-गाना, सब कुछ सच्चे सपने थे।
नानी के घर जाते थे, औ खूब शरारत करते थे,
मामा-मौसी पास-पड़ोसी, आनंद के तो खजाने थे।
दादा-दादी बुआ-चाची, रोज प्यार में डूबोते थे,
मम्मी-पापा चांद खिलौने ,तारे भी ले आते थे।
हंसी-ठिठोली मित्र की टोली, सर आंखों पे बिठाते थे।
आओ आओ हिलमिल गाओ, बचपन के वे गीत पुराने,
ढोल-नगाड़े ताशे-बाजे, मधुर मधुर से राग तराने।
अब भी स्मृति में बसते हैं, जीवन के वे सुंदर सपने,
काश वो दिन लौट के आए, जब सारे लगते थे अपने।
ना कोइ राग ना कोइ द्वेष, स्नेह का प्याला पीते थे,
हृदय-राज्य भी संतुष्टि के, गोते खूब लगाते थे।
यह भी अपने वे भी अपने, गीत हम यही गाते थे।
छलदम्भों का रोग न लगता, स्वस्थ मनों से जीते थे।
विभा गुप्ता'दीक्षा'
प्रयागराज,उत्तरप्रदेश
बचपन
जवाब देंहटाएं--------
हिंदी_काव्य_कोश#tmkosh
पूरे जीवन का स्वर्णकाल, व बेशकीमती धन है।
एक बार मिलने वाला, यह प्यारा बचपन है।।
मात-पिता की देखरेख में, बच्चा बढ़ता जाता है।
राव-रंग दुनिया के सब, नित नए रूप में पाता है।।
बाल्यावस्था में बच्चा, नित नई-नई खुशियां लाए।
अपने क्रियाकलापों से,निज कुटुम्ब का मन बहलाए।।
हंसना, रोना, गिरना, उठना, फिर चुपके से छुप जाना।
घर का पूर्ण मनोरंजन,फुदक-फुदक कर दौड़ लगाना।।
अगनित खेलकूद बचपन के, देर शाम तक थक जाना। तरह-तरह के साथी बनते, कभी रूठना,कभी मनाना।।
गोदी में, कंधे पर बैठें, कभी झूलने में झूलें।
कभी-कभी इच्छा होती है,जाकर चंदा को छू लें।।
विविध खानपान करते, परम स्वतंत्र सदा रहते। आंगन,पार्क,बगीचे में,मित्रों के संग मस्ती करते।।
कितना निर्मल,कितना निश्छल,सबका बचपन होता है।
नहीं पुनः मिलने वाला, एक बार जब खोता है।।
शिवाकान्त शुक्ल
जिला- रायबरेली
उत्तर प्रदेश
स्वरचित मौलिक रचना
दिनांक : 03/08/2023
जवाब देंहटाएंविषय : बचपन
वो छोटी छोटी शरारतें
वो मस्तियां, वो नादानियां
वो परियों वाली कहानियां
वो कलियां, वो तितलियां
वो खिलौनों वाली दुनियां
वो गुड्डे गुड़ियां का खेल
वो आंचल में जा छिप जाना
वो थपकियां, वो लोरियां
वो हर बात पर जिद्द करना
वो लाड़ प्यार, वो दुलार
वो बारिश बूंदों की रिमझिम
वो पैरों की छप छप
वो बारिश का पानी
वो कागज़ नांव की कश्तियां
वो मासूमियत भरी मुस्कान
वो धूल मिट्टी, वो शोर
वो कच्ची आम की कैरियां
वो पगडंडियां, वो खुशियां
वो सुनहरे सपनों से सजी रातें
वो सुकुनियत, वो बेफिक्री
वो सीधा सरल जीवन
वो नासमझी, वो निश्छलता।
कीमत जो भी होगी चुका दूंगी...,
गर कोई लौटा देगा बचपन के इन दिनों को।
सुमन मीना (अदिति)
नजफगढ़, दिल्ली
दिनांक : 03/08/2023
जवाब देंहटाएंविषय : बचपन
वो छोटी छोटी शरारतें
वो सुकुनियत, वो बेफिक्री
वो खिलौनों वाली दुनियां
वो गुड्डे गुड़ियां का खेल
वो आंचल में जा छिप जाना
वो थपकियां, वो लोरियां
वो हर बात पर जिद्द करना
वो लाड़ प्यार, वो दुलार
वो बारिश का पानी
वो कागज़ नांव की कश्तियां
वो कच्ची आम की कैरियां
वो पगडंडियां, वो खुशियां
वो सीधा सरल जीवन
वो नासमझी, वो निश्छलता।
कीमत जो भी होगी चुका दूंगी...,
गर कोई लौटा देगा बचपन के इन दिनों को।
सुमन मीना (अदिति)
नजफगढ़, दिल्ली
योगेन्द्र 'योगी'
जवाब देंहटाएंहिन्दी काव्य कोश
विषय- बचपन
विधा- कविता
बचपन
बचपन की अठखेलियां, कैसे जायें भूल।
मन मन आनंदित करे, जीवन के अनुकूल।।
ममता का आंचल, लाड़ और दुलार,
पिता की छत्रछाया, भाई बहन का प्यार,
पल पल हट रुदन हो, बात बात पर तूल।1
खेल और खिलौने, परियों की कहानी,
दादी नानी का सानिध्य, हो जाती मनमानी,
प्रीत रीत की पराकाष्ठा, मिलता प्यार समूल।2
शैतानी होती मगर, मिलता था स्नेह,
रोए चीखे चिल्लाते, करते थे सब नेह,
बाहों के हिंडोले में हम, सहज ही जाते झूल।3
बचपन पढ़ा राम का, 'योगी' काग खिलाई रोटी,
पग बाजे पैजनिया कान्हा, चलत डगर अति छोटी,
नृत्य करात कृष्ण छाच दै, रही गोपी खुशी बसूल।4
रचनाकार का नाम-- योगेन्द्र 'योगी'
कला भवन, छिपैटी, अतरौली,
जि० अलीगढ़ (यूं पी ) 202280
मो० न० 9412594057
विषय:---बचपन
जवाब देंहटाएंवो बचपन का जमाना सुहाना था
अपार खुशियों का छिपा खजाना था
माँकी लोरी दादीकी झोली का दीवाना था
हमजोली संग छ्त पर धूम मचाना था
नदी नहर झील में गोते लगाना था
रंगीन पतंगों को नभ में उड़ाना था
मित्रों संग लुका छुपी खेल बहाना था
गाँव बागों से आम अमरूद चुराना था
गर्मीधूल वर्षा पानी में ठुमके लगाना था
बहते पानी में कागजी नाव चलाना था
भौंरा बांटी गुल्ले डंडे में रंग जमाना था
चाँद सूरज परी अप्सरा का कथाना था
दोस्तों संग लड़ सुलह का बहाना था
चाँद छूने की चाह पर धरा पर आना था
लौटे न बचपन जीवन का खामयाना था
ऐसी मधुर स्मृतियों पर ललचाना था
वो बचपन का जमाना सुहाना था
वो बचपन का ---------------
स्वरचित एवं मौलिक
मंजु तिवारी दीवान
जूना बिलासपुर छत्तीसगढ़
#हिन्दी_काव्य_कोश#tmkosh
जवाब देंहटाएंसाप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता
विषय:बचपन
दिनांक:03/08/2023
बचपन
मनोहर,मनोरम,पल बचपन सलोना।
हँसता,गमकता घर का कोना-कोना।
सुखद,सुनहरा,मासूम बचपन सुहाना।
अमृत लगता ,माँ के हाथों से खाना।
पापा के संग खेत- खलिहान जाना।
हली कल्लू चाचा को पानी पिलाना।
पीले-पीले सरसों से तितली भगाना।
पकड़ना मछलियाँ,बारिश में नहाना।
माँ से बनाना नित,नया-नया बहाना।
दोस्तों के संग,छत पर पतंग उड़ाना।
जन्मदिन पर केक के लिए मचलना।
मिठाई,खिलौना,नये कपड़े पहनना।
सबसे बड़ी लगती,बचपन की हस्ती।
पानी पर चलती ,कागज की कस्ती।
बचपन में विद्यालय,तिहाड़ कारावास।
माँ का प्यारा पल्लू,पांच तारा निवास।।
बीरेन्द्र सिंह राज
नोएडा
गौतम बुद्ध नगर
उत्तर प्रदेश
मंच को सादर नमन 🙏
जवाब देंहटाएं#हिंदी_काव्य_कोष
#tmkosh
साप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता
विषय - बचपन
दिनांक-3/8/2023
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"बचपन की यादें"
बीते जमाने याद आए तो ,आंखों में आंसू भर गए।
कितने सुहाने थे दिन बचपन के अब जाने वो किधर गए।।
दादी-नानी के किस्से कहानी, रंग-बिरंगे खेल खिलौने,
याद आते हैं दिन मस्तिओं के,जो जिंदगी से गुजर गए।
गम की कोई परवाह नहीं,ना फ़िक्र थी दुनियादारी की,
हम दौलत पाने की हसरत में,खुद को ही तन्हा कर गए।
मां बाप का साया था सर पे, बेखबर थे जिम्मेदारी से,
इन बड़ों की बेरंग-ए-जहां में, हम जाने क्यूं उतर गए।
अपने चचेरे सभी भाई बहनें ,इक आंगन में बढ़े हुए,
अब अपनी-अपनी गृहस्थी में सब इधर-उधर बिखर गए।
बचपन ही'वेदी' जिंदगानी का सबसे सुनहरा लम्हा है,
है जवानी में जो आलम,हम अंजाने-बुढ़ापे से डर गए।
वेदवंती 'वेदी'/रांची/(झारखंड)
नमन मंच🙏🙏
जवाब देंहटाएं#हिन्दी_काव्यकोश #tmkosh
#साप्ताहिक_काव्य_प्रतियेगिता
विषय- बचपन
दिनांक- 02/08/2023
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बहुत याद आए, कि जब मुस्काए,
ख्यालों में आके मेरा भोला बचपन।
कभी लोरियों में, कभी थपकियों में,
कभी माँ के आँचल तले सोता बचपन।
बहुत याद आए कि जब मुस्काए,
ख्यालों में आके मेरा भोला बचपन।।
वो मेले में जाना, वो झूले पे चढ़ना,
वो हमजोलियों संग धूम मचाना।
कभी तितलियों संग मचलता वो बचपन,
कभी बन परिन्दों संग उड़ता वो बचपन।
कभी बनके कोयल सा कूक मचाता,
कभी पेड़ पर चढ़ थपाथप मचाता।
कभी रूठता सा, कभी मानता सा,
वो मासूमियत से भरा मेरा बचपन।
बहुत याद आए••••••••••••••••••,
कि जब मुस्काए•••••••••••••••••
ख्यालों में आके मेरा भोला बचपन।।
कभी पानी में चाँद को वो पकड़ता,
कभी जुगनुओं को सितारें समझता,
कभी गुड्डे-गुड़ियों की शादी रचाता,
कभी बालुओं पे घरौंदा बनाता,
वो बारिश के पानी मे कश्ती बनाता,
बहुत याद आए मेरा भोला बचपन।।
अमीरी-गरीबी का मोल नही था,
न जाति को पहचानता भोला बचपन।
वो अल्हड़ सा हँसना, वो मस्ती में चलना,
वो शहजादी हो जैसे अपनी जहां की।
बहुत याद आए कि जब मुस्काए,
ख्यालों में आके मेरा भोला बचपन।।
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रचना पूर्णतः मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित है🙏🙏
✏️लक्ष्मी(सहरसा, बिहार)
#हिन्दी_काव्य_कोश #tmkosh
जवाब देंहटाएंसाप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता
विषय:बचपन
दिनांक:04/08/2023
गली क्रिकेट
दोस्तों तुम्हें बताऊँ, कैसे क्रिकेट खेला ।
वो याद बचपने की, क्या था धमाल मेला ॥
अड्डा अनाथ टैम्पो, हर शाम का ठिकाना ।
वो पार्क में सजें यूँ, पैवेलियन ख़ज़ाना ॥
ओ. पी., जिशान, बब्लू, राबर्ट टीम गप्पू ।
पिन्कू, मनोज, बंटू, रेहान टीम सप्पू ॥
कमलेन्द्र बॉल लाता, राकेश बैट लाता ।
मैं आठ ईंट पट रख, झटपट विकेट बनाता ॥
बालिंग छोर चप्पल, बाईस ही कदम थी ।
वो डेढ़ डेढ़ बल्ला, वाईड लाइनें भी ॥
फिर टॉस को उछाली, गिट्टी वो थूक वाली ।
थे दांव पे समोसे, बाज़ी ग़ज़ब लगा ली ॥
रेहान तेज बॉलर, ओ. पी. कमाल कीपर ।
स्पिनिंग जिशान करता, बंटू धमाल फील्डर ॥
जब खेल ख़त्म होता, आते वहाँ समोसे ।
अब उम्र मुस्कुराती, उस याद के भरोसे ॥
लेखक: कौशलेन्द्र टिंगी, यू. एस. ए.
#हिंदी_काव्य_कोश
जवाब देंहटाएंनमन मंच
साप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता
दिनांक - 04/8/2023
वार - शुक्रवार
विषय - बचपन
निश्छल मन कोमल तन
नटखट प्यारा सा बचपन
कभी होती मीठी शरारत
कभी रूठ कर छिप जाना
कभी जिद्द पर अड़ जाना
कभी गले का हार बन जाना
कभी अपना प्यार दिखाना
कभी होती हँसी ठिठोली
बचपन की है हमजोली
प्यारी होती इनकी बोली
जैसे कोई हो एक पहेली
सुखद अनुभव हम पाते
घर आगंन खुशियाँ लाते
ऊँच-नीच को न ये जाने
सबको ये अपना माने
ईर्ष्या द्वेष से परे जीवन
ह्रदय इनका अति पावन
नटखट प्यारा सा बचपन। ।
उर्मिला पुरोहित
उदयपुर, राजस्थान
बचपन
जवाब देंहटाएंबचपन की गलियों से
नानी के आँगन से
दरियों की पँगत से
बाल्टी भर आमों से
कजन्स की सँगत से
मासियों-मामों से
रिश्ता जो अपना है
ताल-तल्लियों से
लाया है कौन हमें
यूरोप के शहरों तक
लहराती नदियों तक
सुरम्य नज़ारों तक
सारा जग अपना है
गगन की बाँहों तक
ज़िन्दगी की रँगत है
वही तो जोड़े है
दुआ सलामों से
बचपन की खुशबू से
लड़कपन यादों में
चहकता जीवन भर
वो अपना साथी है
सुहाने सपनों में
खुली फ़िज़ाओं में
देश-विदेशों में
वो नन्हा बच्चा है
निकलता सीने से
महकता जीवन भर
वो अपना बचपन है
शारदा अरोरा
sharda.arora9@gmail.com
बचपन
मेरा बचपन छूटे जाता है
माँ-पापा की छत्र-छाया के अहसास का घर छूटे जाता है
भाई-बहनों के साथ का घर छूटे जाता है
यादों के अनगिनत लम्हे भी उतर आते हैं ज़ेहन में
कसैली यादें तो लिपट जातीं हैं मेरे वज़ूद को नीम करेले की तरह
दो बूँद आँसू ढुलक उठते हैं मेरे गालों पर
और मीठे लम्हे तो मुस्करा उठते हैं गाहे-बगाहे
लौट के आना बचपन का नामुमकिन है
और यादों से भुला पाना भी मुश्किल है
बचपन का खाया दूध-दही , मेरी रगों का खून सही
वो बेफिक्री-मस्ती का आलम , आज भी मेरी चाह वही
खन-खन बजने लगते हैं सिक्के बचपन की गुल्लक के
माँ का लाड़-दुलार , पापा की हिफाज़त , भाई-बहनों के साथ का अहसास
सखी-सहेलियों की आवा-जाही ,दादी चाचा-चाची के साथ उत्सव का सा माहौल
इन सबके बिना अधूरा सा मेरा वज़ूद
इसी घर में शैशव ने थी उँगली पकड़ी यौवन की
इसी घर की दहलीज़ के बाहर दुनिया बहुत अलग थी
वो बचपन की कौतुहल वाली आँख से दुनिया का परिचय
मैं आज जो कुछ भी हूँ , उसी बचपन की बदौलत
ये उजाले चलेंगे ताउम्र मेरे साथ-साथ
मेरी भी उम्र जियेगा मेरा बचपन मेरे साथ-साथ
शारदा अरोरा
sharda.arora9@gmail.com
मैं किसी भी तरह से अपने नाम के अकाउण्ट से साइन इन नहीं कर सकी , असुविधा के लिए खेद है ।
#विषय--बचपन
जवाब देंहटाएं#दिनांक----04/08/2023
*••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••*
#बचपन फिर ना मिलेगा दुबारा,
आजमाने को संपूर्ण जीवन सारा,
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
जीवन के खारे स्वर्णिम एहसास है।
मन का जगमग हर कोना था,
खुशियों से रौशन, हर सवेरा था,
मासूमियत का अंदाज सलोना था,
नवीन स्फूर्ति से दिप्त अंत:कोना था।
मन बेफ्रिक, तन पुलकित ,स्वछंद था,
हँसी-फुलझड़ी का रोज तमाशा था,
उत्सवी ढोल-नगाडों से गूंजता,
आंगन का हर कोना-कोना था।
दौडने-भागने से फुर्सत कहाँ मिलती,
परियों की कहानी से मेल जुड आता,
न कोई दीवारें, दरवाजा या लकिरें दिखती,
हरशु बादलों में छूपा पुल ,उडन खटोला आता ।
★*****************************★
अर्चना श्रीवास्तव 'आहना',✍️🌷~~
जवाब देंहटाएंकविता-बचपन
================
अबोध बचपन का अल्हड़पन ,
नटखट चंचल फुर्तीला तन ।
विलक्षण प्रतिभा रूपक झलझल ,
बहा चक्षुनीर, रूठे पलपल |
मातु का अगाध प्रेम निश्छल,
हँसता रोता, बचपन चंचल ||
गुल्ली -डंडा ,कंचा ,धावन,
कागज कस्ती, अक्षरी बावन।
मिले भाई बहन मित्र छप्पन,
भुवन बना देते क्रीड़ागन ।।
बाल कहानी लोरी सुनते,
कुछ बाल प्लास्टिक थैली चुनते ||
नव परिधान मित्र स्कूल जाता,
देख उसका भी मन ललचाता |
शांत अछूता निरस जीवन,
लौटाए कोई उसका बचपन ।।
मोहम्मद अलीम
बसना
जिला-महासमु़ंद छत्तीसगढ़
हिंदी_काव्य_कोश
जवाब देंहटाएंविषय– बचपन
कहां खो गया बचपन मेरा,
वह दृश्य मनोहर था अभिराम।
ना खाने - पीने की चिंता रहती,
खेलना कूदना हमारा काम।।
मां की गोंद में झट सो जाना,
जैसे तीनों लोकों का हो आराम।
खेल - खिलौने संगी साथी,
कभी ना लें हम इनसे विश्राम।।
चुपड़कर तेल मां चोटी बनाती,
आंखों में काजल लग जाते थे।
ढील थोड़ी मिल जाती तो,
झट बाहर खेलने निकल जाते थे।।
गेंद खेलना, लंगड़ी, गोटी,
और आम तोड़ना बागों में।
कागज़ की कई नाव बनाकर,
उनको तैराना बरसातों में।।
डाल कर रस्सी झूला झूले,
छोटे पेड़ों की डालों में।
होली में सब मिल रंग उड़ाएं
बने कन्हैया ग्वालों में।।
चोर, सिपाही, राजा बनकर,
सबको खूब डराते थे।
नींद में भी यही सपने आते,
डरकर मां से चिपट जाते थे।।
डांट डपट होती थी जिस दिन,
झूठा गुस्सा उस दिन दिखाते थे।
पाकर मां से खूब मिठाई,
झट से हम मान जाते थे।।
द्वेषरहित वह प्रेमपूर्ण बचपन,
जब भी याद आ जाता है।
आंखें भर आती तुतलाती बातों से,
प्यारा बचपन वह कहलाता है।।
आशुतोष "आनेंदु"
निचलौल,महराजगंज, उत्तर प्रदेश
हिन्दी काव्य कोश
जवाब देंहटाएंविषय_ बचपन
उछलता ,कूदता ,अठखेलियां करता मासूमियत से भरा बचपन ना दिन की फिक्र ना रातों की थकान मां के आंचल में बेसुध सोया बचपन
कंचो रंगीन दुनिया से, इंद्रधनुष सा हंसता बचपन
बरसात के पानी में कागज की नाव बनाता यह बचपन
गिरता पड़ता साइकिल पर दोस्तों को बैठाता था बचपन
लुक्का छुप्पी के खेल में हारने पर नाराज होता यह बचपन खिलौनों के पीछे भागता ,टूटने पर रोता है बचपन
रंगीन गुब्बारों के पीछे धरा पर लोटता है बचपन
अपनी छोटी सी दुनिया में मदमस्त रहता है बचपन
परियों की कहानियों को सच मानता है बचपन
टॉफी चॉकलेट में जीवन की खुशियां ढूंढता बचपन
छल कपट राग द्वेष से कोसों दूर है बचपन
बस्ते का बोझ थोड़ा भारी है पर बचपन की अपनी तैयारी है
छुट्टी की घंटी पर यूं चिल्लाना, खाली क्लास में शोर मचाना छोटे-छोटे कदमों से दौड़ता है बचपन
दिल के किसी कोने में आज भी जिंदा है बचपन चला
[तापसी)
#हिंदी_काव्य_कोश
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प्रेषित शब्द : बचपन
विधा : कविता
शीर्षक : बचपन
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बाद अरसे के जब अपने आप को मैंने देखा आईने में
चुपके से एक परछाईं झांकने लगी यादों के झीने में।
आँखों के झील में एक बूँद मोती सा चमकता मिला
एक नन्हा चेहरा दरवाज़े पर मुस्कुराता खड़ा मिला।
मैंने जो हाथ मिलाकर पूछना चाहा उसका नाम,पता
मैं तुम्हारा बचपन हूँ कहकर हंसते हुए वो भाग निकला।
याद दिला गया गलियों में सजी दुकानें सपनों की
वो घर-आँगन जो बाँह फैलाएँ राह देखे अपनों की।
वो माटी के खिलौने,रेत के घरौंदे,वो काग़ज़ की नाव
पेड़ों से छनकर उतरती रेशमी धूप,वो बरगद की छाँव
कच्चे पक्के आम,अमरूद तोड़कर सरपट दौड़ लगाना
पोखर में जमकर नहाते हुए एक दूसरे की टाँग खींचना।
यादें दिल में ठहर जाती, दौर बन वक़्त गुज़र जाता
काश! ऐसा भी होता कभी..बचपन कहीं ठहर जाता।
मैं उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ता गया,दूर होता गया मुझसे बचपन
मगर,भूला न पाया कभी वो खिलौने,वो घर,वो गलियाँ,वो आँगन।
मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित@भार्गवी रविन्द्र…४/८/२३
भार्गवी रविंद्र... ४/८/२३ बंगलुरु करनाटक
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जवाब देंहटाएंसाप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता
दिनाँक-04/08/2023
विषय-बचपन
भेदभाव से तब अनजाना था,
सपना भी सब सच लगता था,
कौन अपना और कौन पराया?
सारा जग ही तो अपना था।
आडम्बर का लेश नहीं था,
बहुरूपिये-सा वेश नहीं था,
भोलेपन की बहती धारा में,
बचपन डुबकी लगा रहा था।
पापा की आँखों का सपना,
माँ का सबसे कीमती गहना,
दादी-नानी की कहानियों का,
कभी न होता खत्म खज़ाना।
पर अब युग बदल रहा,
बड़ों का वो सम्मान कहाँ?
बचपन को अब नचा रहा,
डोर खींच मोबाइल यहाँ।
नाम-सीमा सिन्हा
जिला-राँची(झारखण्ड)
विषय:बचपन
जवाब देंहटाएंमधुर स्मृतियों का खजाना था बचपन
हंसता खिलखिलाता ज़माना था
बेफिक्री की चादर ओढ़े परियों का फ़साना था
नानी की कहानी दादी के किस्से
चवन्नी अठन्नी के होते थे हिस्से
लुक्का -छिपी, स्टापू मस्ती के खेल
नहीं थी जिंदगी में रेलम -पेल
कागज़ की नाव सुकून की बरसात
संग मिल छत पर सोना मानो कायनात
नाचना गाना उधम मचाना
पढ़ना मज़े से चुटकुले सुनाना
न शिकवा किसी से न कोई शिकायत
नन्ही ख्वाहिशें अचंभित करता एक मत
वह खूबसूरत लम्हे जाने कहां खो गए
क्यों हम जल्दी बड़े हो गए?
प्रीति कपूर
शालीमार बाग ,दिल्ली
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित रचना
नमन हिन्दी काव्य कोष
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#साप्ताहिक काव्य प्रतियोगिता
#विषय:(बचपन)
विधा-काव्य(छंदमुक्त)
दि.04/08/2023
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पचपन में बचपन की यादें,
करें मनस को तरल तरंगित,
चलचित्र भाँति मंडराते मानस,
दृश्य हृदय को करें उमंगित।
दायित्वहीन बचपन के वे दिन,
माटी में स्वाद चखा करते नित,
नीर-वृष्टि संचित गड्ढों में प्रिय,
कागज की नाव चलाते हर्षित।
शुचि राग-द्वेष से मुक्त भावमय,
मर्यादित आसक्ति-विहीन वह,
कालखण्ड बचपन अनुभूतिक,
नयन सजल कर जाता अब भी।
अपनत्व भाव, रसधार प्रेम उर,
मन-अनुरंजन,चारित्र्य-गठन की,
चारु पाठशाला सशक्त क्षितितल,
काश! लौट आए फिर बचपन।
--मौलिक एवम स्वरचित--
अरुण कुमार कुलश्रेष्ठ
लखनऊ (उ.प्र.)
दिल आज संजोये रखा है, कुछ बचपन की उन यादों को।
जवाब देंहटाएंउन पाक सुनहरे लम्हों को, कुछ कच्चे पक्के वादों को॥
वो दादी नानी के किस्से, जो परिओं से मिलवाते थे।
वो खाली माचिस के डिब्बे, जो घर मेरा बनवाते थे॥
वो मेरी छोटी सी गाड़ी , जो सबको सैर कराती थी।
एक लम्बी सी वो ट्रेन मेरी, जो छुक छुक करती जाती थी॥
वो बचपन के कच्चे सपने, जो हर रोज बदलने लगते थे।
जब खाकर के हम चोट कभी, रोते फिर हँसने लगते थे॥
''ऊपर पंखा चलता था'', जब गा गाकर तुतलाते थे।
जब सुन कर सब हँसने लगते, तब थोड़ा सा शरमाते थे॥
वो प्यारे से गुड्डे गुड़िया, जो हर दिन ब्याह रचाते थे।
वो दो अंको के गुणा भाग , जो कभी समझ ना आते थे॥
कैसे भूलूं उन लम्हों को, जब मछली जल की रानी थी।
वो लम्बी सी बन्दूक मेरी , जो सब पर मैंने तानी थी॥
वो प्यारा सा बचपन मेरा, क्यों छीन लिया मुझसे तुमने।
मेरा भोला सा नटखटपन, हर रोज बदलते वो सपने॥
मुझको ना अच्छी लगती, ये धोखे से लिपटी दुनिया।
बस स्वार्थ दिखे सब चेहरों पर , बंजर सी लगती ये दुनिया॥
मैं नही चाहता हूँ अब कुछ,
अब और मुझे तुम दुःख न दो।
बस यही कामना है मेरी,
मेरा वो बचपन लौटा दो॥
मेरा वो बचपन लौटा दो॥
अनुराग राजपूत "उदघोष"
कानपुर, उत्तर प्रदेश
🙏 नमन माँ शारदे 🙏
जवाब देंहटाएं#नमन मंच-हिन्दी काव्य कोश
#प्रतियोगिता-साप्ताहिक
#विषय-बचपन
#विधा-कविता
ढूंढती है फिर निगाहें, वो मेरा मासूम सा बचपन।
खेल खेल में ही सुबह से साँझ हो जाया करती थी।।
ढूँढती है फिर निगाहें मेरी,वो मासूमियत सी जिंदगी।
ख्वाबो और सपनों में,रात गुजर जाता करती थी।।
वो मिट्टियों के ढेलो पर, साइकिल के पहिये चलाना।
खूब खेलना,खूब कूदना,और खूब गाने गुन गुनाना।।
सांझ पड़े घर आना और माँ की रोजाना डाँट खाना।
इस तरह नित्य कार्यक्रम सूची बन जाया करती थी।।
वो होली का आना,रंग और गुलाल से हुड़दंग मचाना।
सावन के बरसते पानी मे,कागज की कश्ती चलाना।।
न पढ़ना,न पढाना,कभी फेल,तो कभी पास हो जाना।
भविष्य क्या है ये,झूठी मिसाले बन जाया करती थी।।
(स्वरचित व मौलिक रचना)
विजय पुरोहित "बिजू"
रामगढ़ शेखावाटी (सीकर) राजस्थान
वर्षा रानी
जवाब देंहटाएंहिंदी_काव्य_कोश# tmkosh
साप्ताहिक प्रतियोगिता
रचना विषय:- बचपन
लगता बचपन में सुंदर,स्वर्णिम,सहज अपना सब
जितना समेटो लगता फिर भी उतना ही कम
ये टिकता कहां कभी,बस स्वप्न सा लगता है
भर आनन्द सुहाना, वेग से भागता जाता है
वो संचित स्मृतियां मनोहर,
पिता से डांट खा,मां के पीछे सिमट जाना
दादा-दादी से सुनते किस्से कहानी जब-तब
साथियों के पुकारते ही प्रसन्नता से जाता मन भर
संग-संग खेल मिट्टी से लथपथ जाते घर
गिल्ली-डंडा,आंख-मिचौली,पकड़न-पकड़ाई सब
लड़ते-झगड़ते,रूठते-मनाते बांहों में बांहे भर
बहन-भाई से प्रेम और शिकायतें करते दिन भर
ना अपना-पराया,ना जाति-मज़हब का डर
वो दिवाली के पटाखे, खेल-खिलौनों,रंग और मेले-उत्सव
वो बर्फ का गोला और चटकाएं खट्टी-मीठी गोली हम
ओह! कहां गये पता नहीं,वो उल्लसित,आनंदित, मदमस्त पल
काश फिर से लौट आएं वो,मस्त बचपन
उसे जितना समेटो लगता फिर भी उतना ही कम
।
रचनाकार: वर्षा रानी, यमुनानगर, हरियाणा
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