‘‘कविता आत्मा की फुसफुसाहटों से बनी वह महानदी है जो मनुष्यता के भीतर बहती है। हमारे भीतर एक अन्तर्संवाद पैदा करती है, यह हमारे सत्य के प्रति एक निजी यात्रा का प्रस्थान होती है।’’
आज बन्दूकों बमों-बारूदों की होड़ में हमें उस आवाज की आवश्यकता है, जो हमारे भीतर के सर्वाेच्च को सम्बोधित हो हमें उस आवाज की जरूरत है जो हमारी खुशियों से बात कर सकें, हमारे बचपन और निजी राष्ट्रीय स्थितियों के बंधन से,वह आवाज जो हमारे संदेहों, हमारे भय से बात कर सके और उन सभी अकल्पित आयामों से भी जो न केवल हमें मनुष्य बनाते हैं बल्कि हमारा होना भी बनाते हैं। हमारा होना जिस होने को सितारे अपनी फुसफुसाहटों से छुआ करते हैं।’’
मुनष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में किसी न किसी रूप में अवश्य पायी जाती है। मानव एक सामाजिक प्राणी है, समाज में अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उसे निरन्तर संघर्ष करते रहना पड़ता है।
परिणामतः उसको विविधविध अनुभव प्राप्त होते हैं। ये सारी अनुभूतियाँ मानव - मानस में विचारों तथा भावों की वीचियाँ तरंगित करती हैं, सामान्यतया ये भाव एवं विचार-तरंगे मानसकूल से टकराकर शान्त हो जाती है परन्तु जब इनके वेग में तीव्रता आ जाती है तो अनायास ही इनकी अभिव्यक्ति होने लगती है, इस अभियव्यक्ति का साधन बनती है ‘वाणी' अभिव्यक्ति में सौन्दर्य का समावेश उसे कला का रूप देती है और यह सौन्दर्यपूर्ण कलात्मक अभिव्यक्ति ही ‘काव्य’ का रूप धारती है तथा इस प्रकार की अभिव्यक्ति करने वाले को कवि का अभिधान दिया जाता है और उसकी कृति काव्य कहलाती है।
वस्तुतः कवि सामान्य मानव से भिन्न होता है, उसका हृदय अधिक संवेदन-शील होता है। उसमें सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति होती है। वह साधारण में असाधारण का चमत्कार उत्पन्न कर सकता है। वह ब्रहमा का संगोत्रिय है, ब्रहमा द्वारा निर्मित इस दृश्य जगत से भी मनोरम भाव जगत का सृजन वह कर सकता है। उसकी सर्जनात्मक कल्पना इस जगत की कुरूपता एवं त्रुटियों को दूर कर उसे सुन्दर भव्य तथा पूर्ण बना सकती है। ऐसे ही नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से सम्पन्न समर्थ कवि के अन्यतम क्षणों की सौन्दर्यपूर्ण मधुर अभिव्यक्ति ही ‘‘काव्य’’ का रूप ग्रहण करती हैं। अन्य भारतीय चिन्तनधाराओं के सदृश ही काव्य का वैज्ञानिक अध्ययन उसी दिन से प्रारम्भ हुआ जिस दिन से मानव ने कवि का रूप प्राप्त किया परिणामतः काव्यशास्त्र का प्रादुर्भाव हुआ।
काव्यदृष्टि सजीव सृष्टि तक ही बद्ध नहीं रहती वरन् वह प्रकृति के उस भाग की ओर भी जाती है, जो निर्जीव व जड़ कहलाता है। वन, भूमि, पर्वत, चट्टान, नदी, नाले, टीले, मैदान, समुद्र, आकाश, मेघ नक्षत्र इत्यादि के रूप गति आदि से भी हम सौन्दर्य, माधुर्य, भीषणता, भव्यता, विचित्रता, उदासी, उदारता, सम्पन्नता इत्यादि के भाव प्राप्त करते हैं। अपने इधर-उधर हरी-भरी लहलहाती प्रफुल्लता का विधान करती हुई नदी की अविराम जीवनधारा में हम द्रवीभूत औदार्य के दर्शन पाते हैं, पर्वत की ऊँची-चोटियों में विशालता और भव्यता का , वात-विलोडित जल प्रसार में क्षोभ और आकुलता का, विकीर्णघन-खण्डमण्डित , रश्मिरज्जित, साध्य-दिगञ्चल में चमत्कार पूर्ण सौन्दर्य का , ताप से तिलमिलाती धरा पर धूल झोंकते हुए अंधड़ के प्रचण्ड झोंको में उग्रता और उच्छृंखलता का , बिजली की कंपाने वाली कड़क और ज्वालामुखी के ज्वलंत स्फोट में भीषणता का आभास मिलता है। ये सब विश्वरूपी महाकाव्य की भावनायें या कल्पनायें हैं। स्वार्थभूमि से परे पहुंचे हुए सच्चे अनुभूत योगी या कवि मात्र ही इनके द्रष्टा होते हैं। कवियों की वाणी के प्रचार-प्रसार से ही हम संसार के दुःख-सुख, आनन्द-क्लेश आदि का शुद्ध तथा स्वार्थमुक्त रूप में अनुभव करते हैं, इसी प्रकार के अनुभव अभ्यास से हृदय के बन्धन खुलते हैं और मनुष्यता की उच्च भूमि की प्राप्ति होती है।
उदाहरणतः यदि किसी अर्थ - पिशाच या कृपण को देखे ! जिसने केवल अर्थलोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति, आत्म-सम्मान आदि भावों को
एकदम दबा दिया और संसार के मार्मिक पक्ष से मुख मोड़ लिया है, न तो सृष्टि के किसी रूप माधुर्य को देख वह पैसों का हिसाब किताब भूल कभी मुग्ध होता है, न किसी दीन-दुखी को देख कभी द्रवीभूत होता है, न ही अपमानसूचक बात सुनकर क्रुद्ध या क्षुब्ध ही होता है या फिर उससे किसी लोमहर्षक अत्याचार की बात कही जाए तो वह मनुष्य धर्मानुसार क्रोध या
घृणा प्रकट करने के बजाए रूखाई से कहता है कि ‘‘जाने दो हमसे क्या मतलब चलो अपना काम देखें’’ तो यह एक महाभयानक रोग हैं जिससे मनुष्य आधा मर जाता है, जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दुःख-क्लेश की भावना का एहसास स्वप्न में भी नहीं होता, ऐसे लोगों को सामने पाकर दुःख होता है, स्वभावतः यह मन में आता है कि क्या इनकी भी कोई दवा है? तो एक ही उत्तर सामने आता, हाँ ! इनका दवा है ‘कविता’, " क्योंकि मानव हृदय पर नित्य प्रभाव रखने वाले रूपों और व्यापारों को, भावनाओं को सामने लाकर कविता ही बाह्य प्रकृति के साथ मनुष्य की अंतः प्रकृति का सामंजस्य घटित करती हुई उसकी भावनात्मक सत्ता का प्रसार करती है’’ मनुष्य यदि अपने भावों को समेटकर, अपने हृदय को शेष सृष्टि से किनारे कर लें या स्वार्थ की पशुवृत्ति में ही लिप्त रखें तो उसकी मनुष्यता कहाँ रहेगी? यदि लहलहाते हुए खेतों और जंगलों, हरी घास के बीच घूम-घूम कर बहता पानी, काली चट्टानों पर चांदी की तरह ढलते झरनों, मंजरियों से लदी हुई अमराईयों और पटपर के बीच खड़ी झाड़ियों को देखकर मन क्षणभर के लिए लीन न हुआ, यदि कलरव करते पक्षियों के आनन्दोत्सव में उसने योग न दिया, यदि खिले हुए फूलों को देखकर वह न खिला, यदि सुन्दर रूप सामने पाकर अपनी भारी कुरूपता का विसर्जन उसने नहीं किया, यदि किसी दीन दुःखी की अंर्तनाद सुनकर वह न पसीजा, यदि अनाथों और कन्याओं पर अत्याचार होते देख क्रोध से न तिलमिलाया यदि किसी बेढब और विनोदप्रिय दृश्य या उक्ति पर न हँसा तो उसके जीवन में रह ही क्या गया? इस विश्वकाव्य की सरसधारा में जो थोड़ी देर के लिए निमग्न न हुआ तो उसके जीवन को मरूस्थल की यात्रा ही समझना चाहिए।
रीतिकाल की ओर देखें तो स्पष्ट है कि कविता का एकमात्र उद्देश्य मनोरंजन माना गया। यह सौ प्रतिशत सत्य है कि कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरान्त कुछ और भी होता है और वही ‘‘कुछ और’’ सब कुछ हैं मनोरंजन वह शक्ति है जिससे कविता अपना प्रभाव जमाने के लिए मनुष्य की चित्रवृत्ति को स्थिर किए रहती है-इधर-उधर जाने नहीं देती, पढ़ने या सुनने वाले के चित्त को रमाए रहती है, हृदय को प्रकृत दशा में लाकर जगत के बीच क्रमशः उसका प्रसार करती हुई मनुष्यता की उच्च भूमि पर ले जाती है। भावयोग की सबसे ऊँची कक्षा में पहुँचे हुए मनुष्य का जगत से पूर्ण तदात्म्य हो जाता है और उसकी अलग भाव सत्ता नहीं रह जाती उसका हृदय विश्व का हृदय हो जाता है, उसकी अश्रुधारा में जगत की अश्रुधारा का, उसके विलास में जगत के आनन्दनृत्य का, उसके गर्जन-तर्जन में जगत के गर्जन-तर्जन का आभास मिलने लगता है। करूणा और प्रेम के भाव विलसित होते हैं। आदि काव्य रामायण का बीजभाव भी करूणा ही है, क्रौंच को मारने वाले निषाद के प्रति वाल्मीकि के मुख से निकले वचन, ताड़का तथा मारीच के दमन के प्रसंग में भी लोकमंगल की शक्ति के उदय का आभास मिलता है। लोक के प्रति करूणा से प्रेरित होकर ही रावण पर चढ़ाई करने वाले राम के प्रति “कालाग्नि सदृशः क्रोधे“ का उल्लेख इसका सिद्ध प्रमाण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी कहते हैं- “लोक पीड़ा, बाधा, अन्याय, अत्याचार के बीच दबी हुई आनन्द ज्योति भीषण शक्ति में परिणत होकर अपना मार्ग निकालती है और फिर लोकमंगल और लोकरंजन के रूप में अपना प्रकाश करती है।
मनुष्य के कुछ कर्मों में जिस प्रकार दिव्य सौन्दर्य और माधुर्य होता है, उसी प्रकार कुछ कर्मों में भीषण कुरूपता और भद्दापन होता है; इसी सौन्दर्य या कुरूपता का सम्यक प्रत्यक्षीकरण कविता ही कर सकती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी महती आवश्यकता है, क्योंकि काव्य लोकमंगल की आत्मा है,लोकमंगल की साधना है। काव्य एक अखण्ड तत्व या शक्ति है जिसकी गति अमर है ।।
~ डॉ. अंजुला सक्सेना
लखनऊ,उ.प्र.
~ डॉ. अंजुला सक्सेना
लखनऊ,उ.प्र.
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