सार्थक लेखन का प्रश्न- डॉ. सूर्यपाल सिंह



विभिन्न मंचों या व्यक्तियों द्वारा कभी-कभी यह प्रश्न उछाल दिया जाता है कि साहित्य केक्षेत्र में अराजकता उत्पन्न हो गई है। अनेक ऐसे लेखक पैदा हो गए हैं, जिन्हें नहीं होना चाहिए था। उनके शब्दों में नकली लेखक पैदा हो गए हैं, जिन्हें प्रायः 'नान जेनुइन' लेखक कहा जाता। प्रकाशक नहीं मानते। ऐसी रचनाएं छप जाती हैं जिन्हें नहीं छपना चाहिए था। इस तरह के प्रश्नों के निहितार्थ पर विचार पर कई तरह के बिम्ब उभरते हैं।
 एक बिम्ब यह है कि व्यक्ति या मंच साहित्य गुणवत्ता के प्रति अधिक सचेत है। वह चाहता है कि उत्तम साहित्य का सृजन हो। पर इच्छा करना कि उत्तम साहित्य का ही सृजन हो और वास्तविक सृजन में बहुत अंतर होता है। बड़े वृक्ष ही उगेंगे ऐसा कैसे संभव है? झाड़ियां छोटे पौधे सभी को उगना होता है। साहित्यिक विविधता के बीच छोटे-बड़े हर प्रकार के पौधे उगते हैं। कहीं-कहीं उन्हें तराशा जा सकता है, पर यह सोचना कि वन में कुछ विशिष्ट पौधे ही उगेंगे, एक असंभव कल्पना है। विविधता के बीच ही किसी पौधे का सौंदर्य उभरता है। साहित्यिक परिदृश्य भी इसलिए विविधता पूर्ण होता है। उसमें कुछ बरगद भी होते हैं जिनके नीचे दूसरे पौधे नहीं उगते। पर केवल बरगद ही होंगे, ऐसा कैसे सोचा जा सकता है? जो लोग साहित्यिक अराजकता की बात करते हैं, उन्हें विचार करना चाहिए कि यह अराजकता नहीं विविधता है। इसी के साथ एक दूसरा प्रत्यय जुड़ जाता है कि व्यक्ति वर्तमान से असंतुष्ट है। वह और उत्तम व्यवस्था की कल्पना करता है। समाज में वैसा नहीं हो पाता है तो खीझ होती है। ऐसी खीझ अनेक साहित्यकारों की रचनाओं में मिलती हैं। कबीर कहते हैं 'अजब जमाना आया रे'। उनका यह कहना वर्तमान से उनके असंतोष को ही व्यंजित करता है। तुलसी भी कलि वर्णन करते हुए कह जाते हैं 'लुप्त भये सद ग्रंथ'। 
 पर यहीं यह प्रश्न उठता है कि सदग्रंथ या साहित्य का पैमाना क्या है? किसे साहित्य कहा जाए? यदि साहित्यकारों के बीच यह प्रश्न रखा जाए तो सर्वानुमति बनने में कठिनाई होती है। हजारों वर्षों से इस पर मंथन होता आया है। पर प्रश्न आज भी ज्यों का त्यों है। जिस मानस की घर घर में पूजा होती है, उसी की प्रतियां जलाने वाले मिलेंगे। अनेक रचनाकार कहीं प्रशंसा पाते हैं कहीं निंदा। कभी-कभी किसी रचनाकार की रचनाएं बिना किसी का ध्यान आकृष्ट किए ही गुजर जाती है। सौ, दो सौ या कभी-कभी हजारों वर्ष बाद ऐसा लगता है कि वह सही सार्थक रचनाकार था। उसके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन होने लगता है। अनेक रचनाकारों को उनके जीवन में कोई पहचान नहीं मिली किंतु मरते ही उनपर ग्रंथ लिखे जाने लगे। यूरोप में रूसो कहाँ, कैसे मारा? कोई नहीं जानता पर फ्रांसीसी क्रांति होते ही लोगों ने कहना शुरू किया कि रूसो महान था। उसने क्रांति को संभव बनाने में मदद की। एक अनुमानित कब्र खोदकर उसकी मिट्टी को शहर में सम्मान के साथ घुमाया गया। कहा गया कि रूसो की कब्र है। पुनः सम्मान के साथ उसे दफनाया गया। एक ही रचनाकार के विभिन्न बिम्बों को लोग भिन्न-भिन्न रूपों में व्याख्यायित ही नहीं करते, उसका उपयोग भी करते हैं। कबीर की ही रहस्यवादी रचनाएं अनेक विश्वविद्यालयों में नहीं पढ़ाई जाती क्योंकि विचारधारा के स्तर पर उन्हें वे रचनाएं उपयोगी नहीं लगतीं। लेखक लिखता है समाज अपनी सुविधानुसार उसे ग्रहण करता है। यही प्रथम रचना से आज तक होता आया है। सार्थक लेखन के आह्वान के साथ ही एक तीसरा बिम्ब भी गोचर होता है। सार्थक लेखन के नाम पर बहुसंख्यक को अभिव्यक्ति की आजादी से वंचित तो नहीं कर दिया जाएगा। अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने का प्रयास सत्ताधारी समर्थ लोग करते रहे हैं। कहीं उनके निहित स्वार्थों पर कोई उंगली ना उठा दे। समाज में बहुत से बच्चों को पढ़ाई लिखाई का समुचित अवसर नहीं मिलता। जीवन की आवश्यक सुविधाएं अनेक खाते में नहीं आतीं ऐसे लोग अपनी टूटी-फूटी भाषा में अपने अनुभव बयान करते हैं तो उसका भी स्थान होना चाहिए। यदि हम यही सोचेंगे कि उत्तम साहित्य का ही प्रकाशन हो तो कभी आप यह भी कह सकते हैं कि उत्तम लोगों को ही पृथ्वी पर रहने का हक है। वीर भोग्या का नारा देकर अब तक हम यही दर्शाते रहे हैं। अराजकता बढ़ गई है कहकर क्या समर्थ अपनी उत्तर जीविता का तर्क खोजते हैं?
 समाज विविधता से बना है। एकरूपता की भी सीमाएं हैं। समाज के हर व्यक्ति के विकास हेतु अवसर मिलना चाहिए। आज अनेक महान वृत्तांतों को नकारा जा रहा है। वैश्विकता और स्थानीयता एक ही सातत्य पर मिल रहे हैं। पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई है। छोटी-छोटी जगहों से भी साहित्यिक पत्रिकाएं निकलने लगी हैं। सामाजिक विविधता का चटक रंग इन पत्रिकाओं में मिलता है। ये सब पानी के बुलबुले मात्र हैं, इसे कौन कह सकता? अनेक जनपदों से जनपदीय साहित्यिक पत्रिकाएं निकल रही हैं। इनमें जमीनी साहित्य उभर रहा है। यह स्थानीयता एवं वैश्विकता का समन्वय हैं। यदि स्थानीयता की आँच तेज होगी तो उष्मा देगी ही। सार्थक लेखन के नाम पर इन्हें नकारना एक तरह से अनाधिकार चेष्टा ही कहा जाएगा। साहित्य अनुभवों की आँच से पकता है। इन स्थानीय पत्रिकाओं में अनुभव की आँच कम है, इसे कैसे कहा जा सकता है?
 समाज में प्रायः ब्रांड बेचने की आदत होती है। एक ब्रांड चल गया तो लोग उसी के पीछे भागते हैं। कभी-कभी एक ही लेखक; लेखक की कई रचना प्रचार-प्रसार पा गई तो उसकी दूसरी अच्छी रचनाएं भी अनचीन्ही चली जाती हैं।
 अनेक कवियों/लेखकों के साथ ऐसा हुआ है। आज के साहित्यिक परिदृश्य को देखें तो अनेक नामी संस्थाओं ने साहित्यिक पत्रिकाएं बंद कर दी है? लघु पत्रिकाएं ही सर्जनात्मक लेखन को आगे ले जा रही हैं। अनेक रचनाकार अपना सब कुछ होमकर पत्रिकाएं निकाल रहे हैं। अनेक पुरानी पत्रिकाएं बंद हो गई हैं। सार्थक लेखन कहीं भी हो सकता है। लघु पत्रिकाएं भी सार्थक लेखन का मंच हो सकती हैं। यह सच है कि कुछ लेखकों को सम्मान, संपत्ति सब कुछ मिल जाता है और कुछ को रोटियों के भी लाले पड़े रहते हैं।  साहित्यिक ऊष्मा केवल ठेकेदारों के बलबूते नहीं बनी रह सकती। वह ऊष्मा अनुभूतियों की आँच से बनती है। समाज का कोई भी व्यक्ति वह आँच देने में समर्थ हो सकता है। इसलिए 'सार्थक' लेखन नहीं हो रहा ऐसा कहने वाले कभी कभी नकार की मुद्रा में आ जाते हैं। यह नकारात्मक मुद्रा साहित्यिक परिवेश के लिए उपयोगी नहीं है। यदि उसका यह मंतव्य हो कि साहित्य निरंतर प्रगति करे तो इसे स्वीकार किया जा सकता है। 

आज जनसंख्या बढ़ रही है। ज्ञान का विस्तार हो रहा। 
ज्ञान पाकों का विकास हो रहा है। पूरे विश्व को ज्ञान के माध्यम से हम जोड़ पा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजन हो रहे हैं। साहित्य की वैश्विकता और स्थानीयता को प्रतिबंधित तो करेगा ही। अनेक रचनाएं खाद बनकर नए अंकुर को उगा सकेंगी। वर्तमान की समस्यायें निरंतर विमर्श की मांग करती है। पुराने मानदंडों से नए का आकलन संगत नहीं होता। हमें नए सामाजिक परिदृश्य के साथ साहित्य को देखना चाहिए।


काल मांगता वर्तमान में,
अधुनातन का उत्तर ।
भाग रहा उत्तर देने से,
बूढ़ा वही पश्चचर। 

डॉ. सूर्यपाल सिंह
गोण्डा,उ.प्र.