मैं किसान भूपुत्र निरक्षर,
अक्षर ज्ञान कहाँ मुझको।
धर्म योग की गणित कठिन,
है अंक सुजान कहाँ मुझको।
अनुभव से जीना सीखा
विज्ञ हूँ मैं, अविज्ञ नहीं ।
छला गया मैं नीतिज्ञों से
मौन हूँ मैं, अनभिज्ञ नहीं।
विज्ञ हूँ मैं, अविज्ञ नहीं ।
वायु-दिशा, नभ, धरा देख
मौसम का पता लगाता हूँ।
बीज लगा, सिंचित कर भू,
निजकर्म मैं करता जाता हूँ।
ऋतु-पूजन कर सत्कर्मों से,
उपजाता हूँ जीवन अमृत।
यह धरा, प्रकृति है माँ मेरी।
मैं धरा-पुत्र, ऋतुविज्ञ नहीं।
मौन हूँ मैं, अनभिज्ञ नहीं।
विज्ञ हूँ मैं, अविज्ञ नहीं ।
जब करश्रृंगार भू-धूल का मैं,
स्वेद-सिक्त हो कर्म किया।
तब हो प्रसन्न धरती माँ ने
जीवनदायी यह अन्न दिया।
मैं कर्म-देव का साधक हूँ,
पर धर्म का हूँ मर्मज्ञ नहीं।
मुझे अर्थ धर्म का ज्ञान नहीं
भू-सेवक हूँ धर्मज्ञ नहीं।
मौन हूँ मैं, अनभिज्ञ नहीं।
विज्ञ हूँ मैं, अविज्ञ नहीं ।
मधुसूदन लाल श्रीवास्तव 'मधु'
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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