ओ महानगर!
कैसे विश्वास करेें
हम तुम्हारी नियति पर?
एक-एक रेशा चमकाते
संचालित करते हम तुम्हें
पर शहर के नक्षे में
हमारा कहीं नाम नहीं
बित्ता भर ज़मीन नहीं
पांव टिका लेने को
रह गए हम तुम्हारी
अवैध संतति ही!
अधिकारों से वंचित
कर्त्तव्य बोझ से दबे
कूड़े के ढेर से
होते निश्कासित हम
बार-बार, परिधि पार।
कब तक चलेगा यह
ओ महानगर!
कैसे विश्वास करेें
हम तुम्हारी नियति पर?
एक-एक रेशा चमकाते
संचालित करते हम तुम्हें
पर शहर के नक्षे में
हमारा कहीं नाम नहीं
बित्ता भर ज़मीन नहीं
पांव टिका लेने को
रह गए हम तुम्हारी
अवैध संतति ही!
अधिकारों से वंचित
कर्त्तव्य बोझ से दबे
कूड़े के ढेर से
होते निश्कासित हम
बार-बार, परिधि पार।
कब तक चलेगा यह
ओ महानगर!
- डाॅ0 सूर्यपाल सिंह
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