तुुमने कहा था
सच को सच लिखूँगा
कभी बबूल या शमी को
नहीं कहूँगा आम या अमलतास
पर पुरस्कार का एक छोटा सा विज्ञापन
हिला गया तुमको
इधर-उधर झाँकने
दुम हिलाने लगे तुम
सच पर मुलम्मा चढ़ा
बन गए मुलम्मासाज़
ऐसे में तुम्हारा सच
सच कहाँ रह पाया?
सत्ता लुभाती है
लुभने से पहले
सोचो हज़ार बार
क्या सत्ता से जुड़कर
सच कह पाओगे?
हमेशा कुछ लोग
सत्ता का दामन साध
कंचन-कामिनी से
लदे-फँदे दिखते हैं
पर सच कहकर
कितने लोग चूमते रहे शूली
खाते रहे कितने ही, देश देश के धक्के
सच कहना कितना ज़रूरी है
इसे जानो
और अपना पक्ष पहचानो।
-डाॅ0 सूर्यपाल सिंह
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