दर्पण /रामधारी सिंह दिनकर ||Darpan/Ramdhari Singh Dinkar Popular Poem


 


जा रही देवता से मिलने ?
तो इतनी कृपा किये जाओ ।
अपनी फूलों की डाली में
दर्पण यह एक लिये जाओ ।

आरती, फूल से प्रसन्न
जैसे हों, पहले कर लेना;
जब हाल धरित्री का पूछें,
सम्मुख दर्पण यह धर देना ।

बिम्बित है इसमें पुरुष पुरातन
के मानस का घोर भँवर;
है नाच रही पृथ्वी इसमें,
है नाच रहा इसमें अम्बर ।

यह स्वयं दिखायेगा उनको
छाया मिट्टी की चाहों की,
अम्बर की घोर विकलता की,
धरती के आकुल दाहों की ।

ढहती मीनारों की छाया,
गिरती दीवारों की छाया,
बेमौत हवा के झोंके में
मरती झंकारों की छाया ।

छाया छाया-ब्रह्माणी की
जो गीतों का शव ढोती है,
भुज में वीणा की लाश लिये
आतप से बचकर सोती है ।

झांकी उस भीत पवन की जो
तूफानों से है डरा हुआ;
उस जीर्ण खमंडल की जिसमें
आतंक-रोर है भरा हुआ।

हिलती वसुन्धरा की झांकी,
बुझती परम्परा की झांकी;
अपने में सिमटी हुई, पलित
विद्या अनुर्वरा की झांकी ।

झांकी उस नयी परिधि की जो
है दीख रही कुछ थोडी-सी;
क्षितिजों के पास पडी पतली,
चमचम सोने की डोरी-सी।

छिलके उठते जा रहे, नया
अंकुर मुख दिखलाने को है;
यह जीर्ण तनोवा सिमट रहा,
आकाश नया आने को है ।